ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 162 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
णाहं पोग्गलमइओ ण ते मया पोग्गला कया पिंडं । (162)
तम्हा हि ण देहोऽहं कत्ता वा तस्य देहस्य ॥174॥
अर्थ:
[अहं पुद्गलमय: न] मैं पुद्गलमय नहीं हूँ और [ते पुद्गला:] वे पुद्गल [मया] मेरे द्वारा [पिण्ड न कृता:] पिण्डरूप नहीं किये गये हैं, [तस्मात् हि] इसलिये [अहं न देह:] मैं देह नहीं हूँ [वा] तथा [तस्य देहस्य कर्ता] उस देह का कर्ता नहीं हूँ ॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथात्मन: परद्रव्यत्वाभावं परद्रव्यकर्तृत्वाभावं च साधयति -
यदेतत्प्रकरणनिर्धारितं पुद्गलात्मकमन्तर्नीतवाङ्मनोद्वैतं शरीरं नाम परद्रव्यं न तावद-हमस्मि, ममापुद्गलमयस्य पुद्गलात्मकशरीरत्वविरोधात् । न चापि तस्य कारणद्वारेण कर्तृद्वारेण कर्तृप्रयोजकद्वारेण कर्त्रनुमन्तृद्वारेण वा शरीरस्य कर्ताहमस्मि, ममानेकपरमाणुद्रव्यैकपिण्डपर्यायपरिणामस्याकर्तुरनेकपरमाणुद्रव्यैकपिण्ड-पर्यायपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात् ॥१६२॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
प्रथम तो, जो यह प्रकरण से निर्धारित पुद्गलात्मक शरीर नामक परद्रव्य है,—जिसके भीतर वाणी और मन का समावेश हो जाता है;—वह मैं नहीं हूँ क्योंकि अपुद्गलमय ऐसा मैं पुद्गलात्मक शरीररूप होने में विरोध है । और इसी प्रकार उस (शरीर) के कारण द्वारा, कर्ता द्वारा, कर्ता के प्रयोजक द्वारा या कर्ता के अनुमोदक द्वारा शरीर का कर्ता मैं नहीं हूँ क्योंकि मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्ड पर्यायरूप परिणाम का अकर्ता ऐसा मैं अनेक परमाणुद्रव्यों के एकपिण्डपर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्तारूप होने में सर्वथा विरोध है ॥१६२॥