ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 163 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अपदेसो परमाणू पदेसमेत्तो द समयसद्दो जो । (163)
णिद्धो वा लुक्खो वा दुपदेसादित्तमणुभवदि ॥175॥
अर्थ:
[परमाणु:] परमाणु [यः अप्रदेश:] जो कि अप्रदेश है, [प्रदेशमात्र:] प्रदेशमात्र है [च] और [स्वयं अशब्द:] स्वयं अशब्द है, [स्निग्ध: वा रूक्ष: वा] वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ [द्विप्रदेशादित्वमू अनुभवति] द्विप्रदेशादिपने का अनुभव करता है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथ कथं परमाणुद्रव्याणां पिण्डपर्यायपरिणतिरिति संदेहमपनुदति -
परमाणुर्हि द्वय्यादिप्रदेशानामभावादप्रदेश:, एकप्रदेशसद्भावात्प्रदेशमात्र:, स्वयमनेक-परमाणुद्रव्यात्मकशब्दपर्यायव्यक्त्यसंभवादशब्दश्च । यतश्चतु:स्पर्शपञ्चरसद्विगन्धपञ्चवर्णानामविरोधेन सद्भावात् स्निग्धो वा रूक्षो वा स्यात्, तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपा द्विप्रदेशादित्वानुभूति: । अथैवं स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम् ॥१६३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
वास्तव में परमाणु द्विआदि ( दो, तीन आदि) प्रदेशों के अभाव के कारण अप्रदेश है, एक प्रदेश के सद्भाव के कारण प्रदेशमात्र है और स्वयं अनेक परमाणुद्रव्यात्मक शब्द पर्याय की व्यक्ति का ( प्रगटता का) असंभव होने से अशब्द है । (वह परमाणु) अविरोधपूर्वक चार स्पर्श, पाँच रस, दो गंध और पाँच वर्णों के सद्भाव के कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इसीलिये उसे पिण्ड-पर्याय-परिणतिरूप द्विप्रदेशादिपने की अनुभूत होती है । इस प्रकार स्निग्ध-रूक्षत्व पिण्डपने का कारण है ॥१६३॥