ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 14
From जैनकोष
287. अथ त्रसा: के ते, इत्यत्रसोच्यते -
287. अब त्रस कौन हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं-
द्वीन्द्रियादयस्त्रसा:।।14।।
दो इन्द्रिय आदि त्रस हैं।।14।।
288. द्वे इन्द्रिये यस्य सोऽयं द्वीन्द्रिय:। द्वीन्द्रिय आदिर्येषां ते द्वीन्द्रियादय:[1]। ‘आदि’-शब्दो व्यवस्थावाची। क्व व्यवस्थिता:? आगमे। कथम्? द्वीन्द्रियस्त्रीन्द्रियश्चतुरिन्द्रिय: पञ्चेन्द्रियश्चेति। ‘तद्गुणसंविज्ञानवृत्तिग्रहणाद् द्वीन्द्रियस्याप्यन्तर्भाव:। कति पुनरेषां प्राणा:? द्वीन्द्रियस्य तावत् षट् प्राणा:, पूर्वोक्ता एव रसनवाक्प्राणाधिका:। त्रीन्द्रियस्य सप्त त एव घ्राणप्राणाधिका:। चतुरिन्द्रियस्याष्टौ त एव चक्षु:प्राणाधिका:। पञ्चेन्द्रियस्य तिरश्चोऽसंज्ञिनो नव त एव श्रोत्रप्राणाधिका:। संज्ञिनो दश त एव मनोबलप्राणाधिका:[2]।
288. जिन जीवोंके दो इन्द्रियाँ होती हैं उन्हें दो-इन्द्रिय कहते हैं। तथा जिनके प्रारम्भमें दो इन्द्रिय जीव हैं दो–इन्द्रियादिक कहलाते हैं। यहाँ आदि शब्द व्यवस्थावाची है। शंका – ये कहाँ व्यवस्ति होकर बतलाये गये हैं ? समाधान – आगम में। शंका – किस क्रमसे ? समाधान – दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इस क्रमसे व्यवस्थित हैं। यहाँ तद्गुणसंविज्ञान बहुव्रीहि समास का ग्रहण किया है, अत: द्वीन्द्रियका भी अन्तर्भाव हो जाता है। शंका – इन द्वीन्द्रिय आदि जीवोंके कितने प्राण होते हैं ? समाधान – पूर्वोक्त चार प्राणोंमें रसनाप्राण और वचनप्राण इन दो प्राणोंके मिला देनेपर दो इन्द्रिय जीवोंके छह प्राण होते हैं। इनमें घ्राणप्राणके मिला देनेपर तीनइन्द्रिय जीवके सात प्राण होते हैं। इनमें चक्षुप्राणके मिला देनेपर चौइन्द्रिय जीवके आठ प्राण होते हैं। इनमें श्रोत्रप्राणके मिला देनेपद तिर्यंच असंज्ञीके नौ प्राण होते हैं। इनमें मनोबलके मिला देनेपर संज्ञी जीवोंके दस प्राण होते हैं।
विशेषार्थ – यहाँ द्वीन्द्रियके छह, त्रीन्द्रियके सात, चतुरिन्द्रियके आठ, असंज्ञी पंचेन्द्रियके नौ और संज्ञीके दस प्राण पर्याप्त अवस्थाकी अपेक्षा बतलाये हैं। अपर्याप्त अवस्थामें इनके क्रमसे चार, पाँच, छह और सात प्राण होते हैं। खुलासा इस प्रकार है – कुल प्राण दस हैं - पाँच इन्द्रियप्राण; ती बलप्राण, आयु और श्वासोच्छ्वास। इनमें-से संज्ञी और असंज्ञीके अपर्याप्त अवस्थामें श्वासोच्छ्वास, मनोबल और वचनबल ये तीन प्राण नहीं होते, शेष सात प्राण होते हैं। चतुरिन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें तीन ये ओर श्रोत्रेन्द्रिय ये चार प्राण नहीं होते, शेष छह प्राण होते है। त्रीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें चार ये और चक्षुरिन्द्रिय ये पाँच प्राण नहीं होते, शेष पाँच प्राण होते हैं और द्वीन्द्रियके अपर्याप्त अवस्थामें पाँच ये और घ्राणेन्द्रिय ये छह प्राण नहीं होते, शेष चार प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रियके छह ये तथा श्वासोच्छ्वास ये सात प्राण नहीं होते, शेष तीन प्राण होते हैं।