ग्रन्थ:सर्वार्थसिद्धि - अधिकार 2 - सूत्र 15
From जैनकोष
289. ‘आदि’शब्देन निर्दिष्टानामनिर्ज्ञातसंख्यानामियत्तावधारणं कर्त्तव्यमित्यत आह -
289. पूर्व सूत्रमें जो आदि शब्द दिया है उससे इन्द्रियोंकी संख्या नहीं ज्ञात होती, अत: उनके परिमाणका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं –
पंचेन्द्रियाणि।।15।।
इन्द्रियाँ पाँच हैं।।15।।
290. ‘इन्द्रिय’शब्दो व्याख्यातार्थ:। ‘पञ्च’ ग्रहणमवधारणार्थम्, पंचैव नाधिकसंख्यानीति। कर्मेन्द्रियाणां [1]वागादीनामिह ग्रहणं कर्तव्यम् ? न कर्तव्यम्; उपयोगप्रकरणात्। उपयोगसाधना-नामिह ग्रहणं[2], न क्रियासाधनानाम्; अनवस्थानाच्च। क्रियासाधनानामङ्गोपाङ्गनामकर्मनिवर्तितानां सर्वेषामपि क्रियासाधनत्वमस्तीति न पंचैव कर्मेन्द्रियाणि।
290. इन्द्रिय शब्दका व्याख्यान कर आये। सूत्रमें जो ‘पंच’ पदका ग्रहण किया है वह मर्यादाके निश्चित करनेके लिए किया है कि इन्द्रियाँ पाँच ही होती हैं। इससे इन्द्रियोंकी और अधिक संख्या नहीं पायी जाती। शंका – इस सूत्रमें वचनादिक कर्मेन्द्रियोंका ग्रहण करना चाहिए ? समाधान – नहीं करना चाहिए, क्योंकि उपयोगका प्रकरण है। इस सूत्रमें उपयोगकी साधनभूत इन्द्रियोंका ग्रहण किया है, क्रियाकी साधनभूत इन्द्रियोंका नहीं। दूसरे, क्रिया की साधनभूत इन्द्रियोंकी मर्यादा नहीं है। अंगोपांग नामकर्मके उदयसे जितने भी अंगोपांगोंकी रचना हाती है वे सब क्रियाके साधन हैं, इसलिए कर्मेन्द्रियाँ पाँच ही हैं ऐसा कोई नियम नहीं किया जा सकता।