चिन्मूरत दृग्धारी की मोहे
From जैनकोष
चिन्मूरत दृग्धारीकी मोहे, रीति लगत है अटापटी ।।टेक ।।
वाहिर नारकिकृत दुख भोगै, अंतर सुखरस गटागटी ।
रमत अनेक सुरनि संग पै तिस, परनतितैं नित हटाहटी ।।१ ।।
ज्ञानविरागशक्ति तैं विधि-फल, भोगत पै विधि घटाघटी ।
सदननिवासी तदपि उदासी, तातैं आस्रव छटाछटी ।।२ ।।
जे भवहेतु अबुधके ते तस, करत बन्धकी झटाझटी ।
नारक पशु तिय षँढ विकलत्रय, प्रकृतिन की ह्वै कटाकटी ।।३ ।।
संयम धर न सकै पै संयम, धारन की उर चटाचटी ।
तासु सुयश गुनकी `दौलतके' लगी, रहै नित रटारटी ।।४ ।।