चेतन अब धरि सहजसमाधि
From जैनकोष
चेतन अब धरि सहजसमाधि, जातैं यह विनशै भव ब्याधि ।।चेतन. ।।
मोह ठगौरी खायके रे, परको आपा जान ।
भूल निजातम ऋद्धिको तैं, पाये दु:ख महान।।१ ।।चेतन. ।।
सादि अनादि निगोद दोयमें, पर्यो कर्मवश जाय ।
श्वासउसासमँझार तहाँ भव, मरन अठारह थाय।।२ ।।चेतन. ।।
कालअनन्त तहाँ यौं वीत्यो, जब भइ मन्द कषाय ।
भूजल अनिल अनल पुन तरु ह्वै, काल असंख्य गमाय।।३ ।।चेतन. ।।
क्रमक्रम निकसि कठिन तैं पाई, शंखादिक परजाय ।
जल थल खचर होय अघ ठाने, तस वश श्वभ्र लहाय।।४ ।।चेतन. ।।
तित सागरलों बहु दुख पाये, निकस कबहुँ नर थाय ।
गर्भ जन्मशिशु तरुणवृद्ध दुख, सहे कहे नहिं जाय।।५ ।।चेतन. ।।
कबहूँ किंचित पुण्यपाकतैं चउविधि देव कहाय ।
विषयआश मन त्रास लही तहं, मरन समय विललाय।।६ ।।चेतन. ।।
यौं अपार भवखारवार में, भ्रम्यो अनन्ते काल ।
`दौलत' अब निजभाव नाव चढ़ि, लै भवाब्धिकी पाल।।७ ।।चेतन. ।।