जिनरायके पाय सदा शरनं
From जैनकोष
जिनरायके पाय सदा शरनं
भव जल पतित निकारन कारन, अन्तरपापतिमिर हरनं।।जिन. ।।१ ।।
परसी भूमि भई तीरथ सो, देव-मुकुट-मनि-छवि धरनं।।जिन.।।२ ।।
`द्यानत' प्रभु-पद-रज कब पावै, लागत भागत है मरनं ।।जिन.।।३ ।।
जिनरायके पाय सदा शरनं
भव जल पतित निकारन कारन, अन्तरपापतिमिर हरनं।।जिन. ।।१ ।।
परसी भूमि भई तीरथ सो, देव-मुकुट-मनि-छवि धरनं।।जिन.।।२ ।।
`द्यानत' प्रभु-पद-रज कब पावै, लागत भागत है मरनं ।।जिन.।।३ ।।