त्रिभुवन आनन्दकारी जिन छवि
From जैनकोष
त्रिभुवनआनन्दकारी जिन छवि, थारी नैननिहारी ।।टेक. ।।
ज्ञान अपूरब उदय भयो अब, या दिनकी बलिहारी ।
मो उर मोद बड़ो जु नाथ सो, कथा न जात उचारी ।।१ ।।
सुन घनघोर मोरमुद ओर न, ज्यों निधि पाय भिखारी ।
जाहि लखत झट झरत मोह रज, होय सो भवि अविकारी ।।२ ।।
जाकी सुंदरता सु पुरन्दर-शोभ लजावन हारी ।
निज अनुभूति सुधाछवि पुलकित, वदन मदन अरिहारी ।।३ ।।
शूल दुकूल न बाला माला, मुनि मन मोद प्रसारी ।
अरुन न नैन न सैन भ्रमै न न, बंक न लंक सम्हारी ।।४ ।।
तातैं विधि विभाव क्रोधादि न, लखियत हे जगतारी ।
पूजत पातक पुंज पलावत, ध्यावत शिवविस्तारी ।।५ ।।
कामधेनु सुरतरु चिंतामनि, इकभव सुखकरतारी ।
तुम छवि लखत मोदतैं जो सुर, सो तुमपद दातारी ।।६ ।।
महिमा कहत न लहत पार सुर, गुरुहूकी बुधि हारी ।
और कहै किम `दौल' चहै इम, देहु दशा तुमधारी ।।७ ।।