नंदिषेण
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
- पुन्नाट संघ की गुर्वावली के अनुसार आप जितदंड के शिष्य और दीपसेन के गुरु थे ‒देखें इतिहास - 7.8।
- छठे बलभद्र थे (विशेष परिचय के लिए ‒देखें शलाकापुरुष - 3)। (महापुराण/65/174)
- (महापुराण/53/श्लोक) धातकीखंड के पूर्व विदेहस्थ सुकच्छदेश की क्षेमपुरी नगरी का राजा था। धनपति नामक पुत्र को राज्य दे दीक्षा धारण कर ली। और अर्हंनंदन मुनि के शिष्य हो गये।12-13। तीर्थंकर प्रकृति का बंध करके मध्यम ग्रैवेयक के मध्य विमान में अहमिंद्र हुए।14-15। यह भगवान् सुपार्श्वनाथ के पूर्व का भव नं.2 है ‒देखें सुपार्श्व नाथ ।
- (हरिवंशपुराण/18/127-174) एक ब्राह्मण पुत्र था। जन्मते ही माँ-बाप मर गये। मासी के पास गया तो वह भी मर गयी। मामा के यहाँ रहा तो इसे गंदा देखकर उसकी लड़कियों ने इसे वहाँ से निकाल दिया। तब आत्महत्या के लिए पर्वत पर गया। वहाँ मुनिराज के उपदेश से दीक्षा धर तप किया। निदानबंध सहित महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ। यह वसुदेव बलभद्र का पूर्व का दूसरा भव है ‒देखें वसुदेव ।
पुराणकोष से
(1) वसुदेव के पूर्वभव का जीव । यह मगध देश के एक दरिद्र ब्राह्मण का पुत्र था । इसके गर्भ में आते ही इसके पिता मर गये थे । जन्म होते ही माँ भी मर गयी थी । पालन-पोषण करने वाली मौसी भी इसकी आठ वर्ष की अवस्था में ही चल बसी थी । मामा के घर रहते हुए इसने मामा की पुत्रियों से विवाह करना चाहा था किंतु उन पुत्रियों ने विवाह न कर इसे घर से निकाल दिया था । इसने वैभारगिरि पर जाकर आत्मघात करना चाहा किंतु वहाँ तपस्या करने वाले मुनियों से इसने धर्माधर्म का फल सुना और आत्मनिंदा करते हुए संख्य नामक मुनि से दीक्षा ली तथा तप में लीन हो गया । इसके तप की इंद्र ने भी देवसभा में प्रशंसा की थी । एक देव ने इसके वैयावृत्ति धर्म की परीक्षा भी ली थी तथा उसकी प्रशंसा करता हुआ ही वह स्वर्ग लौटा था । इसने पैंतीस हजार वर्ष तप किया । अंत में इसने छ: मास के प्रायोपगमन संन्यास को धारण कर अग्रिम भव में लक्ष्मीवान् एवं सौभाग्यवान बनने का निदान किया और मरकर निदान के फलस्वरूप यह महाशुक्र स्वर्ग में देव हुआ । स्वर्ग से चयकर यह वसुदेव हुआ । महापुराण में इसे नंदी कहा है -देखें नंदी - 6 । हरिवंशपुराण - 18.127-140, 158-175
(2) आचार्य जितदंड के परवर्ती एवं स्वामी दीपसेन के पूर्ववर्ती एक आचार्य । हरिवंशपुराण - 66.27
(3) विदेहक्षेत्र के गंधिल देश में पाटली ग्राम के वैश्य नागदत्त और उसकी स्त्री सुमति का तीसरा पुत्र । इसके क्रमश: नंद और नंदिमित्र दो बड़े भाई तथा वरसेन और जयसेन दो छोटे भाई और मदनकांता तथा श्रीकांता दो बहिनें थी । महापुराण 6.128-130
(4) तीर्थंकर चंद्रप्रभ के पूर्वभव का जीव । पद्मपुराण - 20.19
(5) विदेह का एक नृप, अनंतमति रानी का पति, वरसेन का पिता । महापुराण 10.150
(6) सुकच्छ देश मे क्षेमपुर नगर के राजा धनपति का पिता । इसने पुत्र को राज सौंपकर अर्हनंदन गुरु से दीक्षा ले ली । तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते हुए यह अहमिंद्र हुआ । महापुराण 53. 2, 12-15
(7) जंबूद्वीप में मेरु पर्वत की उत्तर दिशा में विद्यमान ऐरावत क्षेत्र के पद्मिनीखेट नगर के सागरसेन वैश्य का पुत्र और धनमित्र का सहोदर । महापुराण 63.262-264
(8) हस्तिनापुर के राजा गंगदेव और रानी नंदयशा का सातवाँ पुत्र । महापुराण 71. 260-263
(9) मिथिला नगरी का राजा । इसने तीर्थंकर मल्लिनाथ को आहार दिया था । महापुराण 66.50
(10) आगामी तीसरा नारायण । महापुराण 76.487
(11) सातवाँ बलभद्र । भरतक्षेत्र में चक्रपुर नगर के राजा वरसेन और उसकी दूसरी रानी वैजयंती का पुत्र । यह सुभौम चक्रवर्ती के छ: सौ करोड़ वर्ष बाद हुआ था । इसकी आयु छप्पन हजार वर्ष की और शारीरिक अवगाहना छब्बीस धनुष थी । भाई के वियोग से यह वैराग्य को प्राप्त हुआ । इसने शिवघोष मुनि से दीक्षा ली तथा तप द्वारा कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया । पूर्वभव में यह वसुंधर नाम से सुसीमा नगरी में जन्मा था । सुधर्म गुरु से दीक्षा लेकर यह ब्रह्म स्वर्ग गया था । वहाँ से चयकर यह बलभद्र हुआ । महापुराण 65.174-178,110-191, पद्मपुराण - 20.229-239