निरखी निरखी मनहर मूरत
From जैनकोष
निरखी निरखी मनहर मूरत तोरी हो जिनन्दा,
खोई खोई आतम निधि निज पाई हो जिनन्दा ।।टेर ।।
ना समझी से अबलो मैंने पर को अपना मान के,
पर को अपना मान के ।
माया की ममता में डोला, तुमको नहीं पिछान के,
तुमको नहीं पिछान के ।।
अब भूलों पर रोता यह मन, मोरा हो जिनन्दा ।।१ ।।
भोग रोग का घर है मैंने, आज चराचर देखा है,
आज चराचर देखा है ।
आतम धन के आगे जग का झूँठा सारा लेखा है,
झूँठा सारा लेखा है ।
अपने में घुल मिल जाऊँ, वर पावूँ जिनन्दा ।।२ ।।
तू भवनाशी मैं भववासी, भव से पार उतरना है,
भव से पार उतरना है ।
शुद्ध स्वरूपी होकर तुमसा, शिवरमणी को वरना है,
शिवरमणी को वरना है ।।
ज्ञानज्योति `सौभाग्य' जगे घट, मोरे हो जिनन्दा ।।३ ।।