भाखूँ हित तेरा, सुनि हो मन मेरा
From जैनकोष
भाखूँ हित तेरा, सुनि हो मन मेरा ।।टेक. ।।
नरनरकादिक चारौं गति में, भटक्यो तू अधिकानी ।
परपरणति में प्रीति करी, निज परनति नाहिं पिछानी ।
सहै दुख क्यों न घनेरा ।।१ ।।भाखूँ. ।।
कुगुरु कुदेव कुपंथ पंकफंसि, तैं बहु खेद लहायो ।
शिवसुख दैन जैन जगदीपक, सो तैं कबहुँ न पायो ।
मिट्यो न अज्ञान अंधेरा ।।२ ।।भाखूँ. ।।
दर्शनज्ञानचरण तेरी निधि, सौ विधिठगन ठगी है ।
पाँचों इंद्रिन के विषयन में, तेरी बुद्धि लगी है ।
भया इनका तू चेरा ।।३ ।।भाखूँ. ।।
तू जगजाल विषै बहु उरझ्यो, अब कर ले सुरझेरा ।
`दौलत' नेमिचरन पंकज का, हो तू भ्रमर सबेरा ।
नशै ज्यों दुख भवकेरा ।।४ ।।भाखूँ. ।।