मन महल में दो दो भाव जगे
From जैनकोष
मन महल में दो दो भाव जगे, इक स्वभाव है, इक विभाव है ।
अपने-अपने अधिकार मिले, इक स्वभाव है, इक विभाव है ।।टेर ।।
बहिरंग के भाव तो पर के हैं, अंतर के स्वभाव सो अपने हैं ।
यही भेद समझले पहले जरा, तू कौन है तेरा कौन यहाँ ।
तू कौन है तेरा कौन यहाँ ।।१ ।।
तन तेल फुलेल इतर भी मले, नित नवला भूषण अंग सजे ।
रस भेद विज्ञान न कंठ धरा नहीं सम्यक् श्रद्धा साज सजे ।
नहीं सम्यक् श्रद्धा साज सजे ।।२ ।।
मिथ्यात्व तिमिर के हरने को, अक्षय आतम आलोक जगा ।
हे वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, तब दर्शन मन `सौभाग्य' पगा ।
तब दर्शन मन `सौभाग्य' पगा ।।३ ।।