मानत क्यों नहिं रे
From जैनकोष
मानत क्यों नहिं रे, हे नर सीख सयानी ।।टेक ।।
भयौ अचेत मोह-मद पीके, अपनी सुधि बिसरानी ।।
दुखी अनादि कुबोध अब्रततैं, फिर तिनसौं रति ठानी ।
ज्ञानसुधा निजभाव न चाख्यौं, परपरनति मति सानी ।।१ ।।
भव असारता लखै न क्यौं जहँ, नृप ह्वै कृमि विट-थानी ।
सधन निधन नृप दास स्वजन रिपु, दुखिया हरिसे प्रानी ।।२ ।।
देह एह गद-गेह नेह इस, हैं बहु विपति निशानी ।
जड़ मलीन छिनछीन करमकृत-बन्धन शिवसुखहानी ।।३ ।।
चाहज्वलन इंर्धन-विधि-वन-घन, आकुलता कुलखानी ।
ज्ञान-सुधा-सर शोषन रवि ये, विषय अमित मृतुदानी ।।४ ।।
यौं लखि भव-तन-भोग विरचि करि, निजहित सुन जिनवानी ।
तज रुषराग `दौल' अब अवसर, यह जिनचन्द्र बखानी ।।५ ।।