मेरी सुध लीजै रिषभ स्वाम!
From जैनकोष
मेरी सुध लीजै रिषभस्वाम! मोहि कीजै शिवपथगाम ।।टेक. ।।
मैं अनादि भवभ्रमत दुखी अब, तुम दुख मेटत कृपाधाम ।
मोहि मोह घेरा कर चेरा, पेरा चहुँगति विदित ठाम।।१ ।।मेरी. ।।
विषयन मन ललचाय हरी मुझ, शुद्धज्ञान-संपति ललाम ।
अथवा यह जड़ को न दोष मम, दुखसुखता, परनति सुकाम।।२ ।।मेरी. ।।
भाग जगे अब चरन जपे तुम, वच सुनके गहे सुगुनग्राम ।
परमविराग ज्ञानमय मुनिजन, जपत तुमारी सुगुनदाम।।३ ।।मेरी. ।।
निर्विकार संपति कृति तेरी, छविपर वारों कोटिकाम ।
भव्यनिके भव हारन कारन, सहज यथा तमहरन घाम।।४ ।।मेरी. ।।
तुम गुनमहिमा कथन करनको, गिनत गनी निजबुद्धि खाम ।
`दोलतनी' अज्ञान परनती, हे जगत्राता कर विराम।।५ ।।मेरी. ।।