योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 397
From जैनकोष
अग्राह्य परिग्रह का स्वरूप -
संयमो हन्यते येन प्रार्थ्यते यदसंयतै: ।
येन संपद्यते मूर्च्छा तन्न ग्राह्यं हितोद्यतै: ।।३९७।।
अन्वय :- हितोद्यतै: (साधुभि:) तत् न ग्राह्यं येन संयम: हन्यते, येन मूर्च्छा संपद्यते, (तथा) यत् असंयतै: प्रार्थ्यते ।
सरलार्थ :- जो साधु अपनी हित की साधना में उद्यमी हैं, वे उन पदार्थो को ग्रहण नहीं करते, जिनसे उनकी संयम की हानि हो; ममत्व परिणाम की उत्पत्ति हो अथवा जो पदार्थ असंयमी के द्वारा प्रार्थित हो अर्थात जिन्हें असंयमी लोग निरंतर चाहते हैं ।