योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 398
From जैनकोष
मोक्षाभिलाषी साधु का स्वरूप -
मोक्षाभिलाषिणां येषामस्ति कायेsपि निस्पृहा ।
न वस्त्वकिंचना: किंचित् ते गृह्णन्ति कदाचन ।।३९८।।
अन्वय :- येषां मोक्षाभिलाषिणां काये अपि निस्पृहा अस्ति ते अकिंचना: (साधव:) कदाचन किंचित् वस्तु न गृह्णन्ति ।
सरलार्थ :- मात्र मोक्ष की अभिलाषा रखनेवाले साधुजन अपने शरीर से भी विरक्त रहते हैं; इसकारण अपरिग्रहमहाव्रत के धारक मुनिराज अत्यल्प भी बाह्य परिग्रह को कदाचित् भी ग्रहण नहीं करते ।