योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 412
From जैनकोष
अप्रमत्त अनाहारी श्रमण का स्वरूप -
कषाय-विकथा-निद्रा-प्रेमाक्षार्थ-पराङ्गमुखाः।
जीविते मरणे तुल्या: शत्रौ मित्रे सुखेsसुखे ।।४१२।।
आत्मनोsन्वेषणा येषां भिक्षा येषामणेषणा ।
संयता सन्त्यनाहारास्ते सर्वत्र समाशया: ।।४१३।।
अन्वय :- (ये संयता:) कषाय-विकथा-निद्रा-प्रेमाक्षार्थ (प्रे-अक्ष-अर्थ)-पराङ्गमुखा: जीविते (च) मरणे शत्रौ मित्रे सुखे असुखे तुल्या: (भवन्ति )। येषां आत्मन: अन्वेषणा च येषां अणेषणा भिक्षा (प्रचलति), ते सर्वत्र समाशया: संयता: अनाहारा: सन्ति ।
सरलार्थ :- जो मुनिराज क्रोधादि चार कषायों से, स्त्रीकथादि चार विकथाओं से, स्पर्शादि प्रीतिकर पाँच इन्द्रियविषयों से, निद्रा एवं स्नेहरूप इन पन्द्रह प्रमाद परिणामों से विमुख/रहित हैं अर्थात् शुद्धोपयोग में मग्न/लीन रहते हैं; जीवन-मरण, शत्रु-मित्र एवं सुख-दु:ख में समताभाव/ वीतरागभाव धारण करते हैं, जो सतत आत्मा की अन्वेषणा/खोज में लगे रहते हैं (अर्थात् जो शुद्धोपयोग अथवा शुद्धपरिणतिजन्य आनन्द का रसास्वादन करते रहते हैं) जिनका आहार इच्छा से रहित अर्थात् नियम से अनुदिष्ट/सहज प्राप्त रहता है, जो अनुकूल-प्रतिकूल सब संयोग-वियोग में सर्वत्र सदा राग-द्वेष परिणामों से रहित अर्थात् वीतराग परिणाम से परिणमित रहते हैं, उन मुनिराजों को अनाहारी संयत कहते हैं ।