योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 414
From जैनकोष
देहमात्र परिग्रहधारी साधु का स्वरूप -
य: स्वशक्तिमनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते ।
साधु: केवलदेहोsसौ निष्प्रतीकार-विग्रह: ।।४१४।।
अन्वय :- य: निष्प्रतीकार-विग्रह: स्व-शक्तिं अनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते, असौ केवलदेह: (देहमात्रपरिग्रह:) साधु: (अस्ति) ।
सरलार्थ :- जो मुनिराज शरीर का प्रतिकार अर्थात् शोभा, शृंगार, तेल मर्दनादि संस्कार करनेरूप राग परिणाम से रहित हैं, संयोगों में प्राप्त अपनी शरीर की सामर्थ्य और पर्यायगत अपनी आत्मा की पात्रता को न छिपाते हुए सदा अंतरंग एवं बाह्य तपों को तपने में तत्पर रहते हैं, वे देहमात्र परिग्रहधारी साधु हैं । भावार्थ:- मुनिराज अपरिग्रह महाव्रत के धारक होते हैं, अत: वे धर्म के साधनरूप पीछी, कमंडलु और एक शास्त्र को छोड़कर अन्य कुछ रखते ही नहीं और इन तीनों के प्रति भी उन्हें राग नहीं रहता । शरीररूप परिग्रह का स्वरूप कुछ अलग ही है । शरीर को तो अरहंत परमात्मा भी छोड़ नहीं सकते, क्योंकि जबतक आयुकर्म रहेगा, तबतक नामकर्म के निमित्त से प्राप्त शरीर तो रहेगा ही । तब शरीर के प्रति राग ही तो छोड़ सकते हैं । अत: मुनिराज शरीर में रोग हो जाय अथवा ये शरीर के लिये इष्ट-अनिष्ट संयोग प्राप्त हों तो वे उनके प्रति समताभाव ही रखते हैं । इसलिए शरीर रहते हुए भी वह उनका परिग्रह नहीं है, तथापि वह शरीर आत्मा के साथ तो रहेगा ही, बाह्य में उन्हें और सब दुनियाँ को भी वह शरीर दिखेगा ही । अत: मुनिराज को देहमात्र परिग्रहधारी कहने में आया है । उन्हें शरीर का संस्कार आदि करने का भाव ही नहीं आता, इसे ही चरणानुयोग में मुनिराज को शरीर का तेलमर्दनादि द्वारा संस्कार नहीं करना चाहिए - इस भाषा में कहने की जिनवाणी की पद्धति है । मूल बात यह है कि निज शुद्धात्मा में लीनतारूप निश्चय तप आचरते हैं, तो बाह्य तप सहज अर्थात् हठ बिना हो जाते हैं । यही विषय प्रवचनसार गाथा २२८ और इसकी दोनों टीकाओं में आया है, उसे जरूर देखें ।