योगसार - चारित्र-अधिकार गाथा 415
From जैनकोष
मुनिराज के आहार का स्वरूप -
एका सनोदरा भुक्तिर्मांस-मध्वादिवर्जिता ।
यथालब्धेन भैक्षेण नीरसा परवेश्मनि ।।४१५।।
अन्वय :- (पूर्वोक्त-साधो:) भुक्ति: पर-वेश्मनि भैक्षेण यथालब्धेन एकासनोदरा मांस- मधु आदि-वर्जिता नीरसा (भवति) ।
सरलार्थ :- देहमात्र परिग्रहधारी मुनिराज/श्रमण का आहार नियम से पराये घर पर ही होता है । वह आहार भिक्षा से प्राप्त, यथालब्ध, ऊनोदर के रूप में, दिन में एकबार, मद्य-मांस आदि सदोष पदार्थो से रहित और मधुर/मीठा रस आदि रसों से रहित प्राय: नीरस ही होता है ।