योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 318
From जैनकोष
वीतरागी जीव को मुक्ति की प्राप्ति होती है -
कर्मैव भिद्यते नास्य शुक्ल-ध्यान-नियोगत: ।
नासौ विधीयते कस्य नेदं वचनमञ्चितम् ।।३१८।।
कर्म-व्यपगमे राग-द्वेषाद्यनुपपत्तित: ।
आत्मन: संगरागाद्या: न नित्यत्वेन संगता: ।।३१९।।
अन्वय :- (यदि कोsपि) (कथयेत्) अस्य (केवलिन:) शुक्ल-ध्यान-नियोगत: कर्म एव न भिद्यते । असौ (मोक्ष: च) कस्य (अपि) न विधीयते इदं वचनं न अञ्चितम् । (यतो हि) आत्मन: संगरागाद्या: नित्यत्वेन न संगता: (सन्ति), कर्म-व्यपगमे राग-द्वेषादि- अनुपपत्तित: ।
सरलार्थ :- यदि कोई कहे - अरहंत परमात्मा केवलज्ञानी के शुक्लध्यान के नियोग से कर्म सर्वथा भेद को प्राप्त नहीं होते अर्थात् कर्मो का नाश नहीं होता और किसी भी जीव को कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता है; तो यह कथन असत्य है । क्योंकि आत्मा के राग-द्वेष-मोह परिणाम अशाश्वत हैं । कर्मो का विनाश होने पर राग-द्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती है ।