योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 320
From जैनकोष
सिद्ध परमात्मा पुन: संसार में नहीं आते -
न निर्वृत: सुखीभूत: पुनरायाति संसृतिम् ।
सुखदं हि पदं हित्वा दु:खदं क: प्रपद्यते ।।३२०।।
अन्वय :- (यथा) हि सुखदं पदं हित्वा दु:खदं (पदं) क: प्रपद्यते ? (क: अपि न; तथा एव) सुखीभूत: निर्वृत: (सिद्ध-परमात्मा) संसृतिं पुन: न आयाति ।
सरलार्थ :- लौकिक जीवन में जिसतरह कोई भी मनुष्य अपनी इच्छा से सुखदायक पद/ स्थान को छोड़कर दु:खदायक स्थान का स्वीकार नहीं करता; उसीतरह अव्याबाध अनंत सुखमय सिद्ध स्थान को छोड़कर सिद्ध परमात्मा संसारी नहीं होते ।