योगसार - मोक्ष-अधिकार गाथा 327
From जैनकोष
एक ही जीव, अपेक्षा से दो प्रकार का -
एको जीवो द्विधा प्रोक्त: शुद्धाशुद्ध-व्यपेक्षया ।
सुवर्णमिव लोकेन व्यवहारमुपेयुषा ।।३२७।।
अन्वय :- व्यवहारं उपेयुषा लोकेन सुवर्णं इव एक: जीव: शुद्धाशुद्ध-व्यपेक्षया द्विधा प्रोक्त: ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार व्यवहारीजन एक ही सुवर्ण को शुद्ध सुवर्ण और अशुद्ध सुवर्ण - इसतरह दो प्रकार का कहते हैं; उसीप्रकार व्यवहारीजन एक ही जीव को शुद्ध जीव और अशुद्ध जीव - इसतरह दो प्रकार का कहते हैं ।