रे जिय! क्रोध काहे करै
From जैनकोष
रे जिय! क्रोध काहे करै
देखकै अविवेकि प्रानी, क्यों विवेक न धरै ।।रे जिय. ।।
जिसे जैसी उदय आवै, सो क्रिया आचरै ।
सहज तू अपनो बिगारै, जाय दुर्गति परै ।।रे जिय. ।।१ ।।
होय संगति-गुन सबनिकों, सरव जग उच्चरै ।
तुम भले कर भले सबको, बुरे लखि मति जरै ।।रे जिय. ।।२ ।।
वैद्य परविष हर सकत नहिं, आप भखि को मरै ।
बहु कषाय निगोद-वासा, छिमा `द्यानत' तरै ।।रे जिय. ।।३ ।।