वर्णीजी-प्रवचन:आत्मकीर्तन - छंद 3
From जैनकोष
सुख दुःख दाता कोई न आन, मोह राग रुष दुःख की खान।
निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नहीं लेश निदान।। 3 ।।
जीवों का समस्त प्रवर्तनों में सुखप्राप्ति का प्रयोजन―सुख और दुःख का देने वाला अन्य कोई नहीं है, अपना ही मोह राग द्वेष रूप परिणाम दुःख की खान है, दुःख को उत्पन्न करने वाला है अथवा ये परिणाम ही स्वयं दुःखस्वरूप है । जीव लोक सभी सुख चाहते हैं और दुःख से डरते हैं । और वे जितने भी प्रयत्न करते हैं वे सूख के अर्थ प्रयत्न करते हैं । सुख इतनी महती अभिलाष्य चीज हो गयी, कि अन्य-अन्य भी जो कुछ चाहा जाता है वह भी सुख के लिये, अर्थात् सुख का प्रयोजन सब प्रयोजनों में मुख्य प्रयोजन है, बल्कि यों कहो कि जितने भी और-और नाम से प्रयोजन कहे गए हैं वे सब सुख प्रयोजन की पूर्ति के लिए हैं । कोई लोग कहते हैं कि मुझे तो प्रयोजन सिर्फ विद्याध्ययन से है अथवा कोई कहते हैं कि मुझे तो सिर्फ इतना ही प्रयोजन है कि मेरा मकान बन जाय आदि । तो इन सब प्रयोजनों में भी एकमात्र प्रयोजन है सुख प्राप्ति का । जिस किसी भी प्रकार सुख मिले वैसा प्रयत्न सभी जीव करते हैं । यहाँ तक भी प्रयत्न करते कि लोग कुवें में गिरकर, आग में जलकर अपने प्राण खोकर भी चाहते क्या हैं? सुख ही चाहते हैं । उनकी कल्पना में यह बात आयी कि हमें तो कुवें में गिरकर या आग में जलकर मरण कर जाने में सुख मिल जायगा । कोई कषाय जगी कि हम जलकर मर जायेंगे तो जिसने मुझे सता रखा है, यह पकड़ा जायगा, कैद में जायगा, फांसी होगी, तो इसकी अकल ठिकाने आयगी,इस प्रकार की बात मन में रखकर कुछ क्रोधावेशी लोग अपनी हत्या कर लेते हैं । इन सब बातों में भी मूल प्रयोजन है सुख प्राप्ति का । सारांश यह है कि सभी जीव सुख चाहते हैं ।
विपरीत उपाय से सुखप्राप्ति का अभाव―अनादिकाल से अब तक सुख के अर्थ इतने प्रयत्न किये जाने पर भी सुख का लेश भी प्राप्त नहीं हुआ । इसका कारण यह है कि जिस तत्त्व की प्राप्ति का जो उपाय है उस ही उपाय से वह तत्त्व प्राप्त हो सकता है । सुख प्राप्त करने के अन्य सब उपाय हैं ही नहीं । बाह्य पदार्थों में कुछ से कुछ परिणमन चाहना यह सुख प्राप्ति का उपाय नहीं है । संबंध क्या है किसी पर से मेरा? किसी पर की परिणति से मुझ में परिणमन नहीं हुआ करता । सिद्ध अवस्था में तो रच भी लगाव नहीं है परपदार्थ का । यहाँ ही लगाव का अनुभव किया जाता है । वस्तुत: यहाँ भी रंचमात्र लगाव नहीं, फिर भी यहाँ वैभव जोड़ने में भी हम परपदार्थों पर दृष्टि देकर उसको कल्पना में रखकर अपने आपके परिणमन से हम राजी रहा करते हैं । बाह्य परिणमन के कारण मुझ में राजीपन नहीं आता । सुख और दुःख का देने वाला जगत में अन्य चेतन या अचेतन कोई पदार्थ नहीं है, किंतु प्राणी बाह्य पदार्थ से ही सुख-दुःख समझकर उनके संग्रह विग्रह के प्रयत्न में लगे रहते हैं, होता है इस प्रयत्न से क्लेश । जो क्लेश का उपाय है उसके करने से सुख प्राप्त कैसे हो सकता है ।
निमित्तभूत पदार्थ में कर्तृत्व की अनाश्रयता―सुख-दुःख का निमित्त कर्म है । सो स्वरूप दृष्टि से देखो तो कर्म भी सुख और दुःख का देने वाला नहीं, किंतु सुख-दुःख परिणमन में कर्म निमित्त है । निमित्त उसे कहते हैं कि जो कार्य में मिलकर तो रहे नहीं, किंतु जिसके अभाव में कार्य होवे नहीं । जैसे घड़ा बनने में निमित्त कुम्हार का व्यापार है तो कुम्हार का व्यापार, कुम्हार के हाथ-पैर की क्रिया घड़े में तो रहती नहीं । घड़ा अलग चीज है लेकिन कुम्हार के उस प्रकार के व्यापार के बिना घड़े की उत्पत्ति नहीं होती है । जैसे एक पेन्सिल छीली गई तो उस पेन्सिल के छिलने में हम आप निमित्त हैं । तो देख लो, हम आपके हाथ-पैर अथवा हम आपकी हाथ―पैर आदि की कुछ भी क्रिया पेन्सिल में नहीं बनी, पर उस व्यापार के बिना पेन्सिल छीली नहीं । तो निमित्त का लक्षण यह है कि जिसका नैमित्तिक के आश्रय में अत्यंताभाव हो, किंतु नैमित्तिक के साथ अन्वय व्यतिरेक संबंध हो उसको निमित्त कहते हैं । आप यह बात घटाते जाइये हर जगह । आग का निमित्त पाकर जल गर्म हो गया । पर वस्तुत: जल के गर्म होने में आग निमित्त है, उपादान नहीं । इसी कारण आग का कोई अंश जल में नहीं पहुंचता । आग का अंश जल में पहुंचे तो आग बुझ जायगी, आग ठहर ही नहीं सकती । तो आग का जल में अभाव है, पर आग जैसी तप्त चीज के अभाव में जल गर्म नहीं हुआ, ऐसा अन्वय व्यतिरेक संबंध है, पर उपादान में अत्यंताभाव है । ऐसे ही प्रत्येक बात में आप लगा सकते हैं । यहाँ तक कि जल में रंग डाल दिया तो रंग पानी में घुल-मिल गया । इतने पर भी रंग के निजी स्वरूप का जल के निजी स्वरूप में प्रवेश नहीं है, लेकिन अन्वय व्यतिरेक संबंध है जल के उस प्रकार रंगीन प्रतिभासने का । कठिन से भी कठिन कोई संबंध हो द्रव्य-द्रव्य का, वहाँ पर भी आप यही प्रक्रिया पायेंगे । हां उदाहरण जो अभी पुद्गल-पुद्गल के दिए गए हैं उनमें एक पुद्गल उस प्रकार के परिणमन को अपने में कभी रख सकेगा, लेकिन वर्तमान में जो निमित्त है वह नैमित्तिक में प्रविष्ट नहीं है । तो कर्म जो जीव ने कषाय करके बांधे हैं उन कर्मों का जब उदयकाल आता है तो जीव में सुख और दुःख परिणति होती है । लेकिन उन कर्मों का कार्य इतना ही मात्र है कि वे खिर रहे उदय पाकर । अब उस सविपाक क्षण का निमित्त पाकर जीव में सुख-दुःख उत्पन्न हो रहा है ।
आश्रयभूत पदार्थों में भी कर्तृत्व की अनाश्रयता―जब सुख-दुःख का देने वाला निश्चय से कर्म भी नहीं है तो फिर शेष जो दृश्यमान पदार्थ हैं ये तो निमित्त भी नहीं हैं, आश्रयभूत हैं उनका क्या कर्तृत्व । यह जीव अपने उपयोग में जिस पदार्थ को विषय करता है, जिसमें अपना दिल लगाता है वह पदार्थ इसके सूख और दुःख का आश्रय बन जाता है । तो ये सब आश्रयभूत पदार्थ हैं । आश्रयभूत पदार्थ के साथ परिणति का व्यावहारिक संबंध उतना भी नहीं होता जैसा कि निमित्त के साथ नैमित्तिक कार्य का संबंध होता है । तो ये बाहरी पदार्थ निमित्तभूत हैं अथवा आश्रयभूत हैं? ये मुझे सुख और दुःख के देने वाले नहीं हैं । यहाँ ही देख लो, कोई-कोई पुरुष जरा-जरासी बात में चिढ़ जाते हैं और कोई पुरुष बहुत-बहुत कहने पर भी शांत रहा करते हैं । तो इतना फर्क क्यों है? वह गाली तो दोनों के लिए बराबर है, पर फर्क उनके उपादान का है, उनके निज के परिणाम का है । एक पुरुष तो धीर है, गंभीर है, विवेकी है, संसार की असारता का जानकार है । उसे अपने आप में तृप्त रहने की धून बनी है तो वह शांत रहता है । और एक पुरुष में आत्मतत्त्व का ज्ञान नहीं है, बाह्य पदार्थों की और दृष्टि बनाये रहता है, बाह्य के सुधार बिगाड़ में ही तृप्त रहता है, उसे जरासी भी बात सुनकर क्षोभ आ जाता है । तो ये सारे अंतर भी यह सिद्ध करते हैं कि सुख-दुःख का देने वाला कोई अन्य पदार्थ नहीं हे । अपना ही परिणाम अपने को मुख और दुःख का कारण बनता है ।
मोह की प्रेरणा का फल कुपथगमन―आत्मा को सुख दुःख देने वाला परिणाम क्या है? मोह, राग और द्वेष । मोह नाम है अज्ञान का, विवेक न जग सकना । मैं क्या हूं? इस प्रकार की सुध न हो सके जिस भाव के कारण उस भाव को कहते हैं मोह । मोह भाव में आत्मा की सुध भी नहीं की जी सकती । देख लीजिये अब, कितना कठिन दु:खमयी परिणाम है मोह । एक वकील ने एक घटना सुनायी थी कि एक किसान के लड़के में और किसी व्यापारी के लड़ के में कुछ झगड़ा हो गया । हुआ तो लड़कों में झगड़ा, पर व्यापारी के लड़के की मां ने गुस्से में आकर किसान के लड़के को चाटा मार दिया । इस बात को देखकर किसानिन ने यह संकल्प कर लिया कि मैं जब तक इसके लड़के को मार न लूंगी तब तक चैन नहीं । आखिर उसे दो-तीन दिन खाया-पीना तक न सुहाया । मिठाई का लोभ देकर किसानिन ने उस व्यापारी के लड़के को अपने घर बुलाया और उसे मारकर जमीन में गाड़ दिया । बाद में जब मालूम हो गया, वह पकड़ी गई तो अदालत में उसने बयान दिया कि ऐसी मेरे भीतर प्रेरणा जगी कि उसके मारे बिना मुझे चैन नहीं पड़ी, दो-तीन दिन से हम से कुछ खाया-पिया ही नहीं गया । तो जब मोह, द्वेष की ओर प्रेरणा देता है तो इतना अनर्थ करा देता है, और जब मोह राग की ओर प्रेरणा देता है तो आपने रक्तारानी और देवरती की कथा मुनी होगी । अपनी रानी रक्ता के अनुराग में देवरती राजा ने सारा राजपाट छोड़ दिया और जंगलों की खाक छानी । उसी रक्ता रानी की हालत देखो―देवरती तो चला गया बाजार और रता रानी मौका पाकर एक कुबड़े-लूले किसान के मधुर गीत में आशक्त होकर उसके पास पहुंची और बोली कि अब से आप हमारा साथ निभाइये । आखिर वह रक्ता रानी देवरती को जन्मदिवस मनाने के बहाने पहाड़ पर ले गई, उसने मजबूत धागों से बांध दिया, और तेजी से धक्का मार दिया । देवरती लुढ़कते-लुढ़कते नदी में जा गिरा । वहाँ रक्ता टिपारे में लूले को सिर पर रखे और पतिव्रता जाहिर कर नाचे कमाये । आगे क्या हुआ सो उनका अपना-अपना भाग्य, लेकिन यहाँ यह देखिये कि जब माह राग की प्रेरणा देता है तो क्या-बया आपत्तियां आती हैं । सर्व विपदाओं की मूल विपदा है मोह, अज्ञान ।
अपने पर अपनी जिम्मेदारी समझने का संदेश―भैया ! थोड़ीसी संपदा पाकर मौज में अपने को बड़ा कृतार्थ समझ रहे हैं लोग, पर यह नहीं जान रहे कि मुझ में जो मोह लदा है उससे इस सहज परमात्मतत्त्व के जो दर्शन नहीं होते, वह अपूर्व पतिभासमात्र आत्मपदार्थ जो हमारे उपयोग में नहीं समाता, उसका फल क्या होगा? इस संसार में रुलना पड़ेगा, कोई दूसरा तो साथी न बन जायगा । हमारी सारी जिम्मेदारी हम ही पर है, दूसरे सब किनारा कर जायेंगे । अभी भी सब किनारा करे हुए है । कल्पना में मान रहे हैं कि इनका हम पर अनुराग है, हम को सुखी रखने वाले ये ही हैं, पर वस्तुत: कोई किसी का प्रेमी नहीं है, कोई किसी का साथी नहीं है । सभी अपने-अपने खुदगर्ज हैं, ये हैं खुदगर्ज तो रहे आयें, इसका कोई बुरा न मानना चाहिये । कारण यह है कि वस्तुस्वरूप ही यही है । अपने ही प्रदेश में अपने आपका परिणमन किये जाय बस यही है पदार्थों का स्वरूप । जो लोग खुदगर्जी की बात जानकर, बताकर जीवों से नफरत करते हैं क्या रखा है दुनिया में, सब खुदगर्ज है । अरे दूसरे को खुदगर्ज बताने वाले मित्र ! जरा तुम भी बताओ कि तुम भी खुदगर्ज हो कि नहीं? खुदगर्जी तो वस्तु की मुद्रा है । कोई पदार्थ किसी दूसरे के लिए कुछ नहीं कर सकता । सब कोई अपने लिए ही अपना काम करते हैं । तो तुम्हारे सुखरूप अथवा दुःखरूप जितने भी परिणमन हैं वे सब मोह रागद्वेष भाव के कारण हैं । कोई अन्य सुख अथवा दुःख देने वाला नहीं है ।
पुण्य पाप के अनुसार बाह्ययोग―श्रीपाल को धवल सेठ ने समुद्र में पटक दिया । चाहा तो यही कि यही मर जाय, पर हुआ क्या कि वह तिर करके निकल गया और आधा राज्य पाया और राजपुत्री का विवाह हुआ । अनेक लोग सुख देने के लिए भरसक यत्न करते हैं, पर होता क्या है कि वही दुःखरूप बन जाता हे । अकृतपुण्य की कथा में बताया कि वह कोई राजपुत्र था, जब से पैदा हुआ तब से राज्य में हानि, प्रजा में क्लेश छा गया । सब लोगों ने मिलकर कहा―महाराज । इस पुत्र की वजह से प्रजा में बड़ी विपत्ति छापी हुई है, यह अकृतपुण्य है । इसने पुण्य नहीं किया, अब आप समझिये क्या किया जाय? तो अकृतपुण्य और उसकी मां, ये उस राज्य को छोड़कर चले गए । बहुतसा द्रव्य, बहुतसा अनाज उनके साथ धर दिया गया, मगर सब खालिस हो गया । कहां गया? कैसे गिर गया? वे मोहरें आग बन गयीं । अब भी कहते हैं लोग गड़ा हुआ धन कोयला बन जाता है अगर उदय न हो । पुण्य पाप के उदयानुसार कुछ भी समागम होने में कुछ आश्चर्य नहीं तो यहाँ जैसा पुण्य पाप जीवों का है उसके अनुसार उनको समागम मिलते हैं, वहाँ कल्पना करके यह जीव स्वयं सुखी दुःखी होता है, अन्य कोई सुख दुःख का देने वाला नहीं है ।
भावों की संभाल का उत्साहन―भैया ! यदि सुखी रहना चाहते हो तो अंत: शिव संकल्प करके रहो, मैं आत्मा अकेला हूँ, मुझ पर अकेले ही जिम्मेदारी है ꠰ अकेले ही मरण होगा, अकेला ही जन्म लेना होगा । तब अकेले इस आत्मतत्त्व की रक्षा के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्̖चारित्र रूप प्रवृत्ति करनी चाहिये । उससे ही आत्मा को सुख शांति प्राप्त हो सकती है । सुख और दुःख का देने वाला जगत में और कोई दूसरा नहीं है । मोह राग द्वेष ये ही दुःख की खान हैं ꠰ सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र आनंद की खान हैं । मोह राग द्वेष में भी भाव ही बनाना होता है तो सम्यक्त्व ज्ञान चारित्र में भी भाव ही बनाना होता है ꠰ अब वह मर्जी है कि किस प्रकार के भाव को करना चाहिये । भाव भाव की सर्वत्र बात है । खोटा भाव कर लिया तो संसार में रुलेंगे, अच्छा भाव कर लिया तो संसार से तिरने का उपाय बना लेंगे ꠰ भाव के अलावा न हम आप कुछ करते थे, न कर रहे हैं और न आगे कर सकते हैं । तो भावों की सम्हाल करने में ही अपनी बुद्धिमानी है ꠰
सुख दुःख होने में निमित्त व आश्रय की अनिवार्यता होने पर भी निमित्त व आश्रय में सुख दुःख का अकर्तृत्व―सुख-दूःख का देने वाला न तो कोई आश्रयभूत पदार्थ है अर्थात् जिन पदार्थों का हम ख्याल करके सुख-दुःख की अनुभूति किया करते हैं, ख्याल में आये हुये पदार्थ हमारे सुख-दुःख के कारण नहीं हैं, और जिन कर्मों के उदय का निमित्त पाकर इस जीव में ख्याल करने की सुख-दुःख की अनुभूति करने की, सुख दुःख रूप परिणमन की प्रवृत्ति होती है, न वे कर्म मुझे सुख दुःख देते हैं । केवल हमारा जो राग द्वेष मोह भाव है, वह ही सुख और दुःख का देने वाला है । यद्यपि मोह राग द्वेष भाव आश्रयभूत पदार्थों का आश्रय करके ही उत्पन्न होते हैं, निराश्रय सुख दुःख नहीं बनते । किसी से कहा जाय कि तुम किसी पदार्थ का ख्याल मत करो और रागद्वेष का परिणमन बना लो, तो ऐसा आप कर सकेंगे क्या? लोक की किसी भी बाह्य वस्तु का ख्याल तो करें नहीं, ध्यान में कुछ भी बाह्य वस्तु लाये नहीं और सुख दुःख जैसा परिणमन बनानें, रागद्वेष का परिणमन बना लें यह संभव नहीं है । इसी प्रकार निमित्तभूत कर्म न हों उदय में और रागद्वेषरूप अथवा सुखदुःखरूप परिणमन बना लें कोई, यह भी नहीं हो सकता । तथापि अर्थात् निमित्त व आश्रय अनिवार्य होने पर भी सुख दुःख की उत्पत्ति करने वाले ये दोनों ही नहीं हैं ।
दुःख के अपाय का उपाय―इस प्रसंग में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह तो बड़ी विकट स्थिति हो गयी । निमित्त होने से और आश्रय तो लोक में सर्वत्र पड़े ही हुए हैं, सो जिस चाहे का ख्याल कर लेने से सुख दुःख की उत्पत्ति होती ही है जब, तब उसको दूर करने का उपाय क्या हे? उस उपाय का वर्णन करते हैं कि निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नहिं लेश निदान । हे आत्मन् ! तू निज स्वरूप को तो निज रूप से जान ले, यह मैं ही मेरा हूँ और अपने चतुष्टय से भिन्न अन्य द्रव्यों को पर रूप से जानले कि ये सब पर हैं फिर देख तेरे दुःख का लेशमात्र भी कुछ कारण न रहेगा । निज क्या है ? यह मैं आत्मा आकाशवत् अमूर्त हूँ । जैसे रूप, रस, गंध, स्पर्श आकाश में नहीं हैं इसी प्रकार ये इस आत्मतत्त्व में भी नहीं है । आकाशवत् निर्लेप है । चूँकि वह आत्मा भी आकाश की तरह अमूर्त हे इस कारण इसमें किसी भी चीज का लेप नहीं होता । आत्मा में जो बंधन है वह संबंध या लेप के कारण नहीं, किंतु निमित्त नैमित्तिक भाव के कारण है और निमित्त नैमित्तिक भाव का बंधन संयोग के बंधन से भी विकट होता है । तो आत्मा अमूर्त है अतएव इसमें कोई लेप नहीं है, अमूर्त निर्लेप होने पर भी यह सद्भूत वस्तु है, प्रतिभासमात्र वस्तु है । इस निज को निज मान लेने और पर को पर जान लेने से क्लेश दूर हो जाते हैं, क्योंकि अब दुःख का कारण नहीं रहा ।
अमूर्त आत्मतत्त्व के संवेदन की सुगमता―अमूर्त होकर भी आत्मा का सत्त्व हुआ करता है, इस विषय में शंका होना साधारण जनों के लिये प्राकृतिक बात है, क्योंकि लोगों कि दृष्टि में रूप, रस, गंध, स्पर्शवान रूपी पदार्थों में ही सत्त्व का व्यवहार चलता हैं । आकाश को सद्भूत मानने वाले लोग अति विरले हैं । धर्म, अधर्म, काल की सत्ता मानने वाले तो उनसे भी अधिक विरले हैं । इसका कारण यह है कि अमूर्त पदार्थ में सत्त्व समझने के लिए कोई सुगम गुंजाइश नहीं है लेकिन समस्त अमूर्त पदार्थों में स्पष्टतया यदि कोई अमूर्त पदार्थ समझा जा सकता है तो वह है आत्मा । और, इसका कारण यह है कि यह स्वयं है । स्वयं पर बात बीत रही है । स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा यह आत्मा भली प्रकार से समझा जा सकता है । तो अमूर्त प्रतिभासमात्र स्वसम्वेदन द्वारा प्रत्यक्ष यह मैं आत्मा अपने स्वरूप से कैसा हूँ सो यथार्थत: अनुभव प्रतीत कर सकता है अनुभव से ही आत्मा की पूर्ण यथार्थता का परिचय होता है । वचनों के द्वारा भी परिचय उस ही को होता है जो कि अनुभूति के निकट हैं अथवा अनुभव कर चुके हों । ऐसा मैं अपने द्रव्य से अर्थात् अपने गुण पर्याय से सत् हूँ । मैं अपने ही प्रदेश में सत् हूँ, अपने ही परिणमन में हूँ, अपने ही गुणों के स्वभाव में हूँ । इस प्रकार जगत के समस्त पदार्थों से निराला अमूर्त प्रतिभासमात्र निज तत्त्व को निजरूप से जाने और इसके अतिरिक्त अन्य जितने भी पदार्थ हैं उनको पररूप से जाने ।
निज को निज पर को पर जान लेने में सर्वार्थसिद्धि―निज को निज पर को पर जानने वाले पुरुष ने सारे विश्व को जान लिया । भगवान केवली सर्वज्ञ समस्त विश्व को स्पष्ट और विवरण सहित जानते हैं, त्रिकालवर्ती पर्यायों सहित जानते हैं । भगवान सारे विश्व को जान लेते है तो उसके एवज में उन्हें मिलता क्या है? देखो―हमने भी निज को निज पर को पर जानकर सारे विश्व को जान लिया तो हमें भी पर से क्या मिल गया? निज में यह मैं स्वयं आया और पर में ये सारे पदार्थ आये । भगवान सर्वज्ञ देव का किसी परवस्तु से कोई प्रयोजन नहीं, सो उन्होंने जानकर भी उसका लाभ क्या उठाया? मुझे भी विश्व के समस्त परवस्तुओं से क्या प्रयोजन? यदि मैं उन परवस्तुओं को बड़े विश्लेषण के साथ नहीं जान रहा तो कुछ हर्ज ही नहीं । पर को पर जान लेने से निज दृढता से जानने में आया, सो हमारा प्रयोजन इतने में ही सिद्ध हो रहा है । पर के बारे में हमने खूब समझ लिया । जो मेरे स्वरूप चतुष्टय में वर्तमान अस्तित्व से भिन्न हैं वे सब पर हैं, समस्त परपदार्थों को हमने परख लिया है । यह एक सर्वज्ञ देव के जानने की पद्धति का अनुसरण करने वाला ज्ञान बन रहा है । भगवान आत्मा को आत्मारूप से, पर को पररूप से जानते हैं । यहाँ भगवान की भक्ति के प्रसाद से, उनकी उपासना और उनकी परंपरा से प्राप्त किए गए सदुपदेश के प्रसाद से हमने भी आत्मा को आत्मारूप से और पर को पररूप से जान लिया है । अब इस ही भेदविज्ञान के आधार पर अभेद स्वतंत्र आत्मतत्त्व का अनुभव होगा, और इस ही सम्यक् भेदविज्ञान के आधार पर हुए अभेद ज्ञानस्वभाव की स्थिरता से स्वयं ही रागद्वेष मूलत: नष्ट होंगे और प्रभु की, सर्वज्ञ की तरह इस ज्ञान में भी वह पूर्ण विकास होगा ꠰
परोक्ष और प्रत्यक्ष विश्वज्ञता का विश्लेषण―भैया ! निज को निज पर को पर जान लेने में और संपूर्ण रूप से निज को निज पर को पर जानने में एक अंतर यह जरूर आता है, जैसे कि अभी कहा था कि भगवान ने सारे विश्व को जान लिया तो उन्होंने क्या लाभ उठाया? लो हमने भी निज को निज पर को पर जानकर सारे विश्व को जान लिया, लेकिन है अंतर, अंतर यह है कि भगवान का केवल ज्ञान जो पूर्ण विकसित है, समस्त विश्व जहाँ प्रतिभात होता है तो सर्व कुछ प्रतिभात होने के कारण संदेह का या अपनी पदवी से हट जाने का कोई अवकाश नहीं है, किंतु यहाँ पर हम प्रभु के साथ समता का गौरव नहीं कर सकते, क्योंकि यहाँ एकदेश आनंद है, विशुद्धि और च्युति का संदेह है । जहाँ आत्मा को आत्मा रूप से जानने भर का प्रयोजन है, इसकी सीमा में यह बात कही गई थी कि प्रभु ने स्पष्ट सबको जान लिया तो हमने भी अस्पष्ट रूप से सारे विश्व को जान लिया । हमारा प्रयोजन न था कि हम अन्य परपदार्थों के बारे में अलग-अलग विशेषताओं को जानें । प्रयोजनमात्र इतना था कि समस्त परपदार्थों से विविक्त निज स्वरूप में अपना उपयोग बने ।
निज की अंत: निरख―यह मैं निज कैसा हूं? अहंप्रत्ययवेद्य । जिसमें मैं मैं की धुन रहती है, शब्द न बोलकर भी अहं प्रत्यय वाच्य तत्त्व का लगाव रहता है, बस वही तो मैं हूँ । वह मैं अकेला हूँ । इस अमूर्त प्रतिभासमात्र आत्म-पदार्थ में किसी भी अन्य का लगाव नहीं है । जो परिजनों में बसकर कल्पनायें बनती हैं―ये मेरे घर के लोग हैं, इनसे मेरा बड़ा महत्त्व है, लोक में सब लोग मुझे बड़ा संपन्न समझते हैं । ये सब जो कल्पनायें हैं वे कल्पनायें इस तरह की हैं कि जैसे लोक में कहते कि इसमें जड़ तो कुछ नहीं हे और बतंगड़ बना दिया है । ठीक इसी तरह की बात और इससे भी बढ़कर बेहूदी, बेतुकी बात इस संबंध में है कि मेरा मेरे से बाहर कुछ भी नहीं है, किंतु कल्पना में सारे विश्व को अपना मान रहे हैं ।
धर्मपालन की निर्णयता―धर्मपालन करना है शांति पाने के लिए, संकटों से छूटने के लिए । मगर धर्मपालन नाम है किसका? इसका तो पहिले निर्णय कर लीजिये तब तो धर्मपालन की बात करो । मुझे धर्म करना है, क्या करना है? हाथ-पैर चलाना, तीर्थ पर जाना, दीप आदिक उठाकर यहाँ वहाँ धरना गान तान आदि करना, पूजा पाठ भजन आदि करना, रस छोड़ना, उपवास करना, एकाशन करना ये सब काम हैं करने के । अरे भैया ! इन कामों में ही जिनकी दृष्टि है उन्हें धर्म दिखा नहीं और न धर्म का पालन बना । ये सब चीजें सहयोगी हैं । धर्मदृष्टि के ये सब सहकारी कारण हैं । जिसके सहकारी कारण हैं उसका पता ही न हो तो सहकारी कैसे? सर्वप्रथम मूलत: आवश्यक है यह कि हम जानें कि धर्म क्या है, तब ही तो हम धर्म का पालन कर सकते हैं । क्या है धर्म? धर्म वह है जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में पहुंचाये । अब छांटकर लो―ऐसा कौनसा परिणमन है जो संसार के दुःखों से छुटाकर उत्तम सुख में पहुंचा दे । छान-बीन करने के बाद विदित होगा कि आत्मा का जो ज्ञानस्वरूप है, स्वभाव है, प्रतिभासमात्र तत्त्व स्वयं अपने आप में अपने सत्त्व से जो अपना स्वरूप है, जो कि स्थिर है, गंभीर है, धीर है, उदार है, साधारण है, निर्विकल्प है, निर्भार है, ऐसा प्रतिभासमात्र निजस्वरूप की दृष्टि होना, उसमें उपयोग जमना, यह तो धर्मपालन है, ऐसा कोई करे तो नियम से उसके संकट दूर होंगे । इसको जानने के बाद फिर इसकी जानकारी कुछ स्थिर रहे हम में हमारी प्रगति हो । हम बाह्य पदार्थों से हटकर विशेषतया अपने आपके स्वरूप के निकट बसते रहा करें यह उपाय और बनना चाहिए ।
शरीर से स्नेह किये जाने की उद्दंडताभरी बात―भैया ! रहेगा कुछ नहीं यहाँ अपना । जो समागम मिले हैं ये समागम नियम से बिछुड़ेंगे और जितने काल के लिए ये समागम हैं उतने काल के लिए भी उनसे क्षोभ ही मिलता है, शांति नहीं मिलती, इस कारण किसी परपदार्थ का ध्यान करना, किसी पर को अपने चित्त में जमाना योग्य बात नहीं । समस्त पर मेरे लिए असार हैं । सबसे विकट स्नेह तो चेतन पदार्थों में हुआ करता है । घर में बसने वाले स्त्री, पुत्रादिक परिजनों से बड़ा विकट स्नेह हुआ करता है । पर यह तो निर्णय करलो कि जिनसे आप स्नेह करते हैं उनका स्वरूप क्या है? किससे आप स्नेह करते हैं? प्रश्न में दो चीजें हैं―शरीर और जीव । शरीर से आप स्नेह करते हैं क्या? दृष्टि तो ऐसी ही है कि शरीर को ही सब कुछ समझकर, उससे ही अपना परिचय बनाकर शरीर पुद्गल को निरखकर ही तुरंत विश्वास होता है कि ये ही लोग तो हैं मेरे । सारा परिचय संबंधी चित्रण उपयोग में आ जाता है । लेकिन आप शरीर से भी प्रीति नहीं करते । शरीर से प्रीति करें तो पहिली बात तो यह है कि जब जीव निकल जाता है, शरीर रह गया मृतक, उस शरीर से तो ये कुटुंबीजन स्नेह करते नहीं । दूसरी बात, यहीं जिंदा ही शरीर में नाक से नाक की धारा निकल बैठे, मुंह से लार टपक जाय, किसी जगह फोड़ा-फुन्सी हो जाय, उसमें से पीप बह जाय, ऐसी स्थिति हो तो इस शरीर में भी स्नेह तो नहीं पहुंचता । कौन शरीर से स्नेह करता?
जीव से भी स्नेह किये जाने की अशक्यता―अब जीव की बात देखो, क्या कोई जीव से स्नेह करता है? यह तो बिल्कुल अयुक्त बात है कि कोई जीव से स्नेह करता है । जीव है एक चैतन्यस्वरूप । अथवा जिस स्वरूपदृष्टि में जगत के सर्व जीव एक समान हैं, सर्व जीवों में साधारणतया ज्ञान को उत्पन्न करने वाला जो ज्ञायकस्वरूप है उस स्वरूप से यदि प्रेम होता तो इसमें ही वह प्रेम करे, यह विभाग नहीं बन सकता । इसलिए इसके मायने यह है कि कोई जीव से भी प्रेम नहीं करता, और इस सूक्ष्म दृष्टि की भी बात जाने दो । जो मोटे रूप में समझ रखा है कि यह एक जीव हे, जो आया है, पैदा हुआ है, और यह कभी जायगा ऐसे मोटे रूप से परखे हुए जीव स्वरूप में भी कोई स्नेह नहीं करता । फिर बतलावो, न तो हम लोगों का जीव से प्यार हो रहा न शरीर से प्यार हो रहा और प्यार से अपनी बरबादी की जा रही है तो यह कितना विकट इंद्रजाल है ।
इंद्रजाल की विडंबना और उसकी समाप्ति का यत्न―इंद्रजाल उसे कहते हैं कि जिसकी जड़, जिसका स्वरूप, जिसकी विधि कुछ भी समझ में न आये और जाल सो बना हुआ है । इंद्र मायने है आत्मा के, उसका जाल । संसार अवस्था में आत्मा का जो जाल बन रहा है उसका नाम है इंद्रजाल । यह सारा इंद्रजाल, ये सारी बेतुकी अटपट कहानियां, ये सब विडंबनायें निज को निज पर को पर जानने से समाप्त होती हैं । तो इसमें कोई असत्यता नहीं कि मोह राग द्वेष ही दुःख की खान हैं । लेकिन ये मोह राग द्वेष कादाचित्क है, औपाधिक हैं, ये मिटते नहीं, कुछ हैरान नहीं होते । जब ये रागद्वेष मेरे ही परिणमन बन रहे हैं और मेरे ही दुःख के कारण हो रहे हैं, तो इनका विनाश मैं कैसे कर सकूं । विनाश इनका हो सकता है, इस कारण हो सकता है कि ये सहेतुक हैं । और, जो पदार्थ सहेतुक होते हैं उन-उन पदार्थों का नाश हो जाया करता है और, जो पदार्थ कादाचित्क होते हैं, हुए अब न रहे, हुए फिर न रहे, उन पदार्थों का, पर्यायों का नाश हो जाया करता है । हमारे सुख-दुःख के कारण ये विकल्प ही है, ऐसा पहिले निर्णय तो पक्का करिये । दृढ़ निर्णय होने पर फिर परख कर लीजिए कि ये नष्ट हो सकते हैं अथवा नहीं ।
दुःखधाम मोह राग द्वेष की बेसिरपैर बातें―मोह उत्पन्न होता है किसी परपदार्थ में अपना लगाव मानने से । राग उत्पन्न होता है किसी परपदार्थ से मुझे सुख होता है ऐसी कल्पना रखने से । द्वेष उत्पन्न होता है मेरे सुख के कारणभूत इन विषयों में ये बाधक हैं ऐसा ज्ञान होने से, पर ये तीनों ही आश्रय असत्य हैं । किसी परपदार्थ में मेरा लगाव नहीं है मेरा स्वरूप मेरे प्रदेश में ही निहित है, मेरी करतूत मेरे प्रदेश में ही निहित हैं, मेरा सर्वस्व मुझ में ही है । मैं यदि हजार मील तक की बातें जान रहा हूं अथवा आगम युक्ति से स्वर्ग और मोक्ष की भी कुछ बातें जान रहा हूँ तो यह मैं अपने ही प्रदेशों में कुछ ज्ञानरूप से परिणमता हुआ इस विश्व को जान रहा हूँ, मेरे प्रदेशों से बाहर मेरा कुछ न कभी हुआ, न कभी हो सकेगा । फिर मेरा किसी भी बाह्य पदार्थ से कुछ लगाव नहीं है । जहाँ इस तरह निज को निज पर को पर जाना, वहाँ मोह समाप्त है । जैसे निज का परिणमन निज से बाहर नहीं पहुंचता, इसी प्रकार पर का परिणमन उस पर के प्रदेश से बाहर नहीं जाता । तब फिर मुझे किसी परपदार्थ से सुख कैसे हो सकता है? जहाँ निज को निज पर को पर जाना, वहाँ रागभाव फिर नहीं ठहरता । जहाँ रागभाव न ठहरे तो द्वेष तो रागमूलक है सो वह द्वेष भी नहीं ठहरता । तो जब निज को निज पर को पर जान लिया तो सुख-दुःख की खान रहती नहीं तो इस जीव को फिर सुख-दुःख का कोई कारण नहीं है ।
हमारी हैरानी―आप लोगों को जो कुछ भी क्लेश है, जो भी हैरानी है वह मात्र विकल्प की है । इस समय केवल अपने आपके हित के नाते से बात जानना है और सुनना है । इस अनादि अनंत काल में थोड़े से वर्षों के लिए मनुष्यभव में आये हुए इस अपने आत्मा की बात कही जा रही है । इसको जो समागम प्राप्त है आज इस भव से पहिले इस रूप में तो न था । यह 10-20 वर्ष के बाद इस रूप में तो न रहेगा यही भूत भविष्य के समागम की कहानी है । इसको कष्ट क्या है? यह विकल्प है कष्ट कि भव-भव में समागम पाया पर आज वे साथ नहीं हैं, आगे जो कुछ समागम होंगे वे आज साथ नहीं है और वर्तमान में जो कुछ भी समागम साथ हैं वे भी साथ न रहेंगे । इस जीव की हालत उस हिरण के बच्चे की तरह है । जैसे कोई हिरण का बच्चा जंगल में अपनी मां से बिछुड़ गया । सैकड़ों शिकारियों ने उसको मारने के लिए धनुष बाण लेकर पीछा किया । वह आगे भगा तो नदी का तीव्र प्रवाह था, अगल-बगल भगना चाहा तो देखा कि भयंकर अग्नि जल रही है । अब वह घबड़ाता है―हाह ! मैं क्या कर, कहां जाऊं? कैसे अपने प्राण बचाऊं? यों जैसे वह हिरण का बच्चा दुःखी होता हे इसी तरह से ये संसारी प्राणी चार संज्ञायें-आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि के वशीभूत होकर निरंतर दुःखी रहा करते हैं ।
हैरानी मिटा लेने का अवसर और सुगम स्वाधीन उपाय―आज हम आपको उत्कृष्ट मनुष्यभव मिला है, हम आपका कर्तव्य है कि यहाँ के संकटों से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय बना लें । मनुष्यभव पाकर हम आपकी कितनी बड़ी जिम्मेदारी है । जैसे यहाँ कमेटी का कोई सेक्रेटरी अथवा प्रेसीडेन्ट बन जाय तो वह समझता है कि हम पर अब बहुत बड़ी जिम्मेदारी है इसी तरह नाना दुर्गतियोंमय संसार में भटकते-भटकते आज मनुष्यभव हम आपको मिला हे तो समझिये कि हम आप पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है । इस दुर्गम संसार वन से पार होने का मार्ग बना लिया तब तो ठीक है अन्यथा पशु-पक्षी, कीट-पतिंगा आदि बन गये तो फिर दुःख ही उठाना पड़ेगा । सुख दुःख का देने वाला यहाँ कोई दूसरा नहीं है, हम ही अपने में कषायें करते और हम ही अपने में आशा बनाते, विकल्प करते, और दुःखी होते । हमारा कुछ भी काम हमारे प्रदेशों से बाहर नहीं होता, लेकिन अंत: ही अंत: विकल्प बना बनाकर दुःखी होते हैं और जन्म मरण की संतति बढ़ाते हैं । उन दुःखों के मेटने का कुछ उपाय भी है क्या? हां, यह उपाय है कि जरा अपने आप में गुप्त हो जायें । अपने आपके हित के नाते से अपने आपको सामने रखकर अपने आपका निर्णय करना है । यही सब दुःखों से छूटने का उपाय है । मुझे बहुतसा धन मिले, बहुत से भोग साधन मिलें तब मेरे दुःख मिटे, यह सोचना गलत है । दुःखों से छूटने का उपाय तो मात्र एक है―‘निज को निज पर को पर जान ।’
निज के यथार्थ परिचय का प्रभाव―अपने आपको जान लिया कि मैं इतना ही हूँ । मेरा तो मुझ से ही वास्ता है । मैं अपने भाव बनाता हूँ और अपने भविष्य का सब कुछ निर्णय बना लेता हूँ । मेरी किसी भी परिणति में किसी दूसरे का हाथ नहीं है । मैं तो भावों को रचता जाता हूँ और अपना भविष्य बनाता हूँ । मेरे भाव आदि उत्तम होंगे तो मैं अपने में ही अपने को निरखकर समक्ष कर सकूंगा और मेरा भविष्य ठीक बनेगा, यह काम यदि न कर सके तो ये धन वैभव आदिक पाकर ही क्या किया जायगा? आखिर ये सब पुद्गल ही तो हैं । इनसे हम आपका पूरा नहीं पड़ सकता । हम अपने आपको समझें कि हम क्या है? जिस क्षण यह समझ आ जायगी उसी क्षण समस्त जीवों के प्रति ये तो सब गैर हैं और ये घर में बसने वाले दो चार जीव मेरे हैं, इस प्रकार के भाव न बनेंगे । ऐसे ज्ञानी गहल की अद्भुत वृत्ति होती है । निज को निज और पर को पर जानने से फिर दुःख का लेश भी निदान नहीं रहता ।
निज को निज पर को पर जान लेने से दुःख के निदान के न रहने का विश्लेषण―भैया ! अपने आपकी परख होने के बाद भी कुछ समय तक दुःख आ सकते हैं । क्योंकि पहिले जो कर्म कमाये हैं वे कर्म उदय में आते हैं । उनके उदयकाल में दुःख आता है । भले ही ज्ञानबल के कारण उसको अत्यंत मंद अनुभाग में बिता डाले, पर दुःख आता है । इस कारण निज को निज पर को पर जान लेने मात्र से दुःख का लेश निदान नहीं रहता । यह न कहकर यह कहा गया है कि निज को निज पर को पर जानने से दुःख का निदान नहीं रहता । दुःख का कारण है खुद का अज्ञान, खुद के व्यर्थ के विकल्प । तो सर्व पर से विविक्त अपने आपको भली प्रकार से समझना और अपने आप में ही स्थिर होना, यह काम हम आपको करने को पड़ा है । यही सारभूत काम है । यहाँ के व्यर्थ के कामों में ही लगकर सारा समय खोया, अपने आपके आत्माराम के काम को जो कि सारभूत काम है, उसको नहीं किया । कितना काल पहिले व्यतीत हो चुका जिसका आदि नहीं, कितना काल आगे व्यतीत होगा जिसका कि अंत नहीं, इतना काल भटकने को पड़ा है या रहने को पड़ा है । इस अनंतकाल के सामने आज का पाया हुआ यह जीवन कितने समय का जीवन है । इसमें जो कुछ भी किया जा रहा है―परिग्रह का संचय किया जा रहा है, अन्य-अन्य वृत्तियां की जा रही हैं, दूसरों का दिल सताया जा रहा है, बहुत-बहुत अन्याय अनीति के काम किये जा रहे हैं क्या ये ही सारभूत काम हैं? जहाँ अनादि अनंतकाल की सुध हुई वहाँ ही इन रागद्वेषमोह, विषय कषाय, भोग आदिक से निवृत्ति होने लगती है ।
लोक और काल की विशालता के प्रत्यय का महत्त्व―संस्थानविचय धर्मध्यान, जिसे मुख्यता से बताया है कि छठवें गुणस्थान से शुरु होता है, वैसे तो चतुर्थ गुणस्थान से है, पर मुख्यता से छठे गुणस्थान में है । विरक्त ज्ञानी साधु के उपयोग में लोक, काल संबंधित आकार परिमाण आदिक बहुत-बहुत दृष्टि में रहा करते हैं । बहुत से अपराधों से बचने में ये लोक, काल आदि के स्मरण बहुत सहायक हैं । धर्मध्यान के अर्थ जब स्वाध्याय करते हैं और लोक का जब प्रकारण चल उठता है, लोक कितना बड़ा है । सूत्र जी के तृतीय अध्याय में यह सब वर्णन पड़ा हुआ है । कितना विशाल लोक है और लोक में क्या-क्या रचनायें हैं यह सब स्वाध्याय में आता है तो लोग उस वर्णन के पढ़ने सुनने समझने आदि में अनुत्साही हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि कोई कथानक हो तो जरा सुगम बने, समझ में आये, रुचि हो । पर यह नहीं सोचते कि इस लोक की रचना परिज्ञान होने से बीच-बीच में वैराग्य विकसित होता रहता है । ओह ! इतना बड़ा लोक है । इस लोक के समक्ष तो आज की यह परिचित दुनिया तो समुद्र के आगे एक बिंदु बराबर भी नहीं है । और, फिर जहाँ हम रह रहे हैं, जिन परिजनों के बीच रह रहे हैं, जितने से क्षेत्र में हमारा परिचय बना हुआ है, जितने से क्षेत्र में हम अपनी कीर्ति फैलाने की बात सोच रहे हैं वह क्षेत्र तो कुछ गिनती ही नहीं रखता । इस थोड़े से क्षेत्र में किसको क्या दिखाना, किसको क्या अपना समझना, इस प्रकार की बात लोक के विस्तार का ज्ञान करते समय बीच-बीच में आती रहती है । लोक विशालता के परिचय में जैसे वैराग्य विकसित होता है, यों ही जब काल की विशालता का वर्णन आता है कि―काल अनंत है, उसका कभी अंत ही नहीं आता तो उस काल के विस्तार के वर्णन में वैराग्य आता रहता है―ओह ! इतने बड़े काल के आगे तो जीवन के ये 14-20-50-100 वर्ष तो कुछ गिनती भी नहीं रखते । अगर इस थोड़े से जीवनकाल मे अपने आपकी सुध करने का प्रोग्राम नहीं बनाते, बाह्य पदार्थों के संचय में, उनको ही रातदिन उपयोग में बसाये रहने में अपना जीवन गुजारते हैं तो समझो कि हम कितनी बड़ी भूल कर रहे हैं । इस भूल के फल में हम आपको कितने दुःख भोगने होंगे इसका अंदाज कर लीजिए ।
सकलक्लेशमुक्ति का अति सुगम एक मौलिक उपाय―समस्त दुःखों से छूटने का उपाय केवल एक है और वह अति सुगम हैं । जैसे किसी मजबूत किले के भीतर बैठा हुआ राजा अपने को सुरक्षित अनुभव करता है इसी प्रकार थोड़े समय को इस देह को किला मान लो । इस देह किले के भीतर आत्माराम है सो अंदर ही देखो, कोई उसमें प्रवेश नहीं कर सकता, और फिर सच्चे किले की बात देखो―अपने आपका जो स्वरूप किला है वह कितना सुरक्षित है । उसे कोई छेद नहीं सकता, उसमें किसी का प्रवेश नहीं हो सकता । उसमें बाहर से कुछ भी हैरानी नहीं हो रही है । रहे निमित्त और आश्रय, सो ये अपनी ही भूल से इस मुझ आत्मा के साथ लगे हुए हैं । मैं ही अपने आपको सम्हालूं तो आश्रय तो तुरंत मिट जायेंगे व निमित्त भी काल पाकर तुरंत मिट जायेंगे । तो एक अपने आपकी सम्हाल से दुःख के सारे कारण समाप्त हो जाते हैं । समस्त दुःखों से छूटने का उपाय एकमात्र यही हे कि अमूर्त प्रतिभासमात्र निज अंतस्तत्त्व में समा जाना । अन्य कोई उपाय नहीं है जो हमारे समस्त दुःख मेट सके ।
दुःखों की प्राप्ति और मुक्ति के उपाय का एक-एक ही ढंग―सब दुःखों की सबके दु:खों की एक ही बात है, सब दुःखों का सबके दुःखों का एक ही स्वरूप है, सबको एक ही किस्म से क्लेश है । क्लेश परदृष्टि से है, चाहे उन क्लेशों के वर्तमान रूपों में आश्रयभेद से भेद कर दिया जाय―देखो, राजा को इस नगर की चिंता के कारण क्लेश है । देखो, इस सेठ को अपने कारोबार की किसी बाधा से क्लेश है । देखो, इन गरीब लोगों को सुरक्षित स्थान न होने मे बरसात के दिनों में क्लेश है, यों चाहे आश्रयभेद कर लीजिए, पर मूल में सबके क्लेशों का मूलकारण एक ही मिलेगा । वह कारण है परदृष्टि । क्लेश का ढंग सब जीवों का एक है । जैसे सब मनुष्यों का जन्म एक तरह से होता है, चाहे किसी भी बिरादरी का मनुष्य हो पर जन्म एक ही तरह से होता है, अथवा मरण भी सबका एक ही तरह से होता है, कहीं ऐसा नहीं है कि किसी ऊंच बिरादरी का कोई हो तो उसका मरण अन्य तरह से हो और किसी नीच बिरादरी का हो तो उसका मरण अन्य किसी तरह से हो, दस प्राणों के वियोग से मरण होता है । इसी प्रकार समस्त दुःखों से छूटने का उपाय एक ही है । अपने को आत्मा के नाते से देखें, जाति, कुल, मजहब आदि के नाते से न देखें । इस मुझ अमूर्त जानन देखनहार आत्मा को अपना हित चाहिए, संसार के संकटों से छुटकारा चाहिए, वह मुझे प्राप्त हो, एक यही अभिलाषा है अन्य कुछ न चाहिए, तो इस धुन में इसका उपाय भी ढूँढ लिया जायगा । यदि किसी रागद्वेष का लगाव करके हम संकटों से छूटने का उपाय ढूँढना चाहें तो वह कठिन हो जायगा ।
संकटों से छूटने के लिये मानकषाय के परिहार की आवश्यकता―संकटमुक्ति के पथ में आने के लिये मानकषाय को छोड़ने की अतीव आवश्यकता है । मान का बहुत बड़ा विस्तार है । इसका दूसरा नाम हे अहंकार, मैं, मैं, मैं 1 मैं जो नहीं है उसमें मैं माने, इस अहंकार का नाम मिथ्यात्व है । समाज में, देश में, सभा-सोसाइटियों आदि में जो मैं-मैं मचा देता है उसका बह मानकषाय है इस मानकषाय के वश होकर किस-किस प्रकार इस शारीरिक सकल सूरत को यह मैं हूँ ऐसा मानकर लोगों ने मेरा अपमान कर दिया, लोग मुझे कुछ समझते नहीं, ऐसी कल्पनायें मचाकर यह उस मान में डूबा हुआ रहता है अरे लोग जानें या न जानें, मुझे क्या? एक तो लोग मुझे जान ही न सकेंगे और अगर वे जान जाये मुझे, तो समझो कि वे स्वयं ज्ञानी हो गए । वे यदि जान गए मुझे तो फिर अमुकचंद, अमुकलाल, अमुकप्रसाद आदि नामों से व्यवहार न करेंगे, वे तो स्वयं ज्ञान ज्योति में मग्न हो जायेंगे । उनके लिए फिर यह मैं क्या रहा? उनके उपयोग में तो वह चैतन्यस्वरूप रहा ।
प्रभु भक्ति में ध्येय विषय―हम प्रभु की भक्ति करते हैं, और उसमें हम जब तक यह भेद रख रहे हैं कि यह अमुक तीर्थंकर हैं, अमुक के पुत्र हैं, अमुक कुल के हैं, इतनी बड़ी अवगाहना के हैं, उस काल में हुए ये आदि तो हम प्रभु के विशुद्ध स्वरूप की आराधना नहीं कर पाते । वहाँ भी जब हम मात्र इस दृष्टि से देखें कि हम एक चित̖पिंड की भक्ति कर रहे हैं, पूजा कर रहे हैं तो एक जिस चित̖पिंडमात्र प्रभु की पूजा कर रहे हैं, प्रभु स्वरूप में, विशुद्ध चित्स्वरूप में जहाँ कोई बंधन नहीं रहता, जहाँ पूर्ण विकास है, ज्ञान ज्योति जहाँ पूर्ण प्रकट है उसकी हम पूजा करें, इस तरह की दृष्टि में समय ज्यादा नहीं लग पाता, इसलिए भिन्न-भिन्न तीर्थंकरों की भिन्न-भिन्न रूप से हम पूजा का उपक्रम करते हैं, पर पूजा करने का कोई उद्देश्य विस्मृत न हो जाये कि हम पूजने किसे आये हैं । हम पूजने आये हैं उस विशुद्ध चैतन्य स्वरूप को, जहाँ रागद्वेष, मोह, सुख, दुःख, कर्म, शरीर ये सब कुछ नहीं रहे, मात्र केवल ज्योति ही है, ज्ञानस्वरूप है, उसको अनुभवने आये हैं हम यहाँ प्रभु पूजा के प्रसंग में ।
प्रभु भक्ति का उचित प्रयोजन―अब और सोचिये हम प्रभु को क्यों पूजने आये? समाज पर एहसान रखने के लिये या भगवान पर एहसान करने के लिए या लोगों में बड़प्पन लूटने के लिए या भगवान के प्रेम के वश होकर? ये कुछ भी उत्तर सही नहीं है, सन्मार्ग के ये उत्तर नहीं हैं । न भगवान के स्नेह से पूजा करने आये हैं, न समाज को रिझाने के लिए, न किसी पर एहसान डालने के लिए पूजा में आये हैं, किंतु इस आत्मा के विभावोंरूप संसार में जो नाना क्लेश हैं उन क्लेशों से छुटकारा पाने का उपाय खोजते-खोजते आज इस चैतन्यस्वरूप के निकट आये हैं । इस चैतन्यस्वरूप के निकट आने से यह परिचय मिला कि यह चैतन्यस्वरूप परमात्मतत्त्व अति पावन है, सर्वक्लेशजालों से मुक्त है । ओह ! इस परमात्मतत्त्व को ही पहिले बहुत-बहुत खोजा, धर्म के नाम पर हर जगह तीर्थों में गया, बहुत-बहुत गुरुजनों से समागम किया, विद्याध्ययन किया, सब कुछ उपक्रम करने के बाद यह समझ में आया कि यह है परमात्मतत्त्व, यह है केवल आत्मतत्त्व, और यही स्वरूप मुझ में है । ऐसे उस निज को जानने से फिर बतलावों वहाँ दुःख का क्या कारण रहता है?
परमात्मतत्त्व के सुचिर ध्यान का कर्तव्य―हम लोगों को परमात्मतत्त्व की बात अधिक देर तक विचारने के लिए, सुनने के लिए मौके नहीं मिल पाते है । ऐसे मौके मिलायें उसी को ही तो सत्संग कहते हैं । ऐसे मौके जीवन में बहुत-बहुत मिलने चाहिये कि हम अविकारी इस निज सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि में लाया करें । किसी की मुद्रा को देखकर, किसी के चारित्र को निरखकर, किसी के उपदेश को सुनकर चर्चायें करके हम अधिकतर इस आत्मतत्त्व के निकट रहा करें । व्यापार आदिक के कार्यों में जितना समय लगाते हैं उससे कम समय निज सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि में न लगे, क्योंकि व्यापार कितने दिनों का? मृत्यु होगी सब धरा रह जायगा, साथ कुछ न जायगा । साथ जाने वाला तो है हमारी आत्मविषयक सद्बुद्धि से उपार्जित किया हुआ ज्ञान का संस्कार । अर्थात् जो मैं हूँ सो ही साथ जायगा, अन्य कुछ नहीं । जरा इससे ही अंदाज लगा लो कि जो मेरे साथ मरने पर जायगा वह तो है मेरा और जो मरने पर मेरे साथ न जायगा वह मेरा अब भी नहीं है । यह बात कुछ तथ्य की जंच रही है क्या? नहीं जंच रही तो अभी धर्ममार्ग में, धर्मपालन के लिए चलने में हमें यह बात पहिले करना है और जंच रही हो तो सोचना चाहिए कि जब जाने के बाद भी हम उस कार्य में एकदम नहीं आ पाते तो यह हमारे लिए खेद की बात है, लाज की बात है । हम अपना जीवन इस योग्य बनायें । यहाँ कोई हमारी मदद न कर देगा । लोग कुछ भी कहें, मजाक करें, विवाद करें, नाम धरे अथवा मुझ से विमुख हों, मुझ से स्नेह मत रखें, सब कोई जहाँ चाहें चले जाये, चाहे सब कुछ छूट जाय पर एक अपने आपके सहज परमात्मतत्त्व की लगन यह मेरे से न छूटे तो यहीं मेरे लिए सब कुछ हैं । एक अपने आपको सम्हाल लेने से हमारा सब कुछ सम्हल जाता है और एक अपने आपको बिगाड़ लेने से हमारा सब बिगड़ जाता है ।
अंत: शांति का अंत: उपाय कर लेने की स्वयं पर ही जिम्मेदारी―भैया ! कोई दूसरा हम आपको दुःख-सुख देने वाला नहीं है, केवल ये हमारे विकल्प ही हम को कष्ट देते हैं । अधिक देर इन इंद्रियों को संयत करके मन को संयुक्त करके किसी से हम को कुछ प्रयोजन नहीं, किसी से कुछ इच्छा न करें, कोई कर क्या देगा मेरा ? कोई मेरा प्रभु नहीं । ये जगत के जीव मेरे कोई साथी नहीं है । मेरी सब जिम्मेदारी मुझ पर ही है । हिम्मत बनायें, संकोच न करें । बड़े मोह और स्नेह के वायदे भी किये हों, बाहर ही बाहर अपने उपयोग को दौड़ाया हो तो भी अब अपने आपको सम्हालकर इस निर्लेप ज्ञानमात्र सहज परमात्मतत्त्व का अनुभव तो कर लीजिये । सब कुछ किया अब तक बाहर में, फिर भी बाहर में कुछ नहीं किया, बाहर में नाम ले लेकर सब कुछ विकल्प कर डाला, किंतु एक निज को जानने का काम न कर सके । जिसका फल है कि ज्ञानमय पदार्थ होकर भी शरीर में फंसा और बंधा है । लोग तो अपने चेहरे क दर्पण में देख-देखकर खुश होते हैं और उसकी बड़ी सम्हाल करते हैं, पर इस सारे शरीर में जितने किस्म के मल भरे हैं उनमें अधिक किस्म के मल तो इस चेहरे में भरे हैं । हाथ-पैर की जगह तो खून मांस मज्जा आदि ही हैं पर इस चेहरे में इनके अतिरिक्त नासिका से नाक निकले, कर्ण से कनेऊ निकले, मुख से लार, कफ, खकार आदिक निकले । इतने महामलिन चेहरे को दर्पण में देखकर, उसे सजाकर लोग बड़े खुश होते हैं । अरे इस शरीर की सजावट में प्रीति न रखो, एक अपने आत्माराम से प्रीति रखो । अपने को निर्लेप, ज्ञानस्वरूप, अत्यंत पवित्र निहारो । मैं तो वह हूँ, ये सब विडंबनायें मैं नहीं हूँ जितना ज्ञान और वैराग्य बढ़ेगा उतना ही दुःख दूर होंगे ।
पर्यायबुद्धि का अन्याय―अज्ञान, पराकर्षण, पर में प्रीति, इनसे तो जीव को क्लेश ही प्राप्त होते रहेंगे । आप भी ऐसा न करें, हम भी ऐसा न करें । लोग मुझे अधिक चाहें, बहुत स्नेह रखें, ऐसा विचार न रखें । ये तो सब प्रासंगिक बातें हैं, पर हां स्नेह के बजाय द्वेष का कड़ा बोलबाला है इसलिए स्नेह की प्रशंसा की जाती है । द्वेष की ज्वाला से तो बचे । वस्तुत: राग और द्वेष दोनों ही इस जीव को क्लेश उत्पन्न करने वाले हैं । मेरे क्लेशों का उत्पन्न करने वाला मेरा ही अज्ञान है, मेरा विकल्प है, मेरा राग है । कैसा घनिष्ट राग मान रखा, ये ही तो हैं मेरे सब कुछ, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र, ये सब कैसे मिटेंगे । क्या ये और के हो जायेंगे? स्त्री तो मेरी ही है दूसरे की कैसे? ये पुत्र तो मेरे ही हैं, दूसरे के कैसे? अरे स्वरूपदृष्टि से देख―तेरा कुछ भी नहीं है । तेरा तो मात्र तेरा स्वरूप है । इसके आगे जो तेरे विकल्प बनते हैं वे सब तेरी मान कषाय में निहित होते जाते हैं । यश की चाह, लोक में बड़प्पन की चाह । और, तो जाने दो-धर्म करते-करते भी तो, आत्महित के प्रयत्न में लगे-लगे भी तो अभिमान उखड़ पड़ता है । मान न मान मैं तेरा महिमान । अभिमानियों की यह दशा है―मान न मान मैं तेरा महिमान । जनसाधारण की दृष्टि में नहीं है कि यह मैं बड़ा हूँ । ये लोग मुझे इतने ऊंचे आदर से नहीं निरखते हैं, लोग निरखें चाहें न निरखें, ? हम तो इनमें बड़े ही हैं । अपने आप में ऐसा बड़प्पन अनुभव करना और अपने आपके परमात्मस्वरूप को भूल जाना, यह अपने आप पर कितना बड़ा भारी अन्याय है ।
देव शास्त्र गुरु की आंतरिक भक्ति से अंत: उपलब्ध आंतरिक ज्ञान से दुःखों का अभाव―परमात्मस्वरूप का स्मरण करते रहना चाहिये पूजा में, ध्यान में, पर्वों में, उपदेशों में । सच पूछो तो ग्रंथों के रूप में ये सब हमारे गुरुराज हैं । इनकी वाणी है ग्रंथों में । हम उनका अध्ययन करें । हम आपने बुद्धि पाया, मन पाया, ज्ञान पाया, सब प्रकार से समर्थ हैं फिर भी इतना प्रमादी बन रहे हैं कि हमारे हितू जो आचार्यजन हैं, गुरुजन हैं उनका स्वरूप भी नहीं जानना चाहते । मन में यह इच्छा ही नहीं रखते कि हम उन गुरुवों का स्वरूप तो देखें कि वे गुरु क्या थे? इन गुरुवों का स्वरूप अगर जानना है―क्या थे ये कुंदकुंद, क्या थे ये समंतभद्र? तो उन गुरुजनों की वाणी का अध्ययन करें तो उनके स्वरूप का पता पड़ेगा, उनके प्रति भक्ति जगेगी और उन गुरुराजों के दर्शन होंगे और अपने जीवन को सफल कर लिया जायगा । तो अब इस मनुष्यभव को हमें यों न खोना चाहिए । ज्ञान और वैराग्य में बड़े, राग और मोह से हटे और अधिक से अधिक उन गुरुराजों के जो अनुभव हैं, उनका अध्ययन कर वहाँ चित्त लगायें तो इस विधि से हम आपका भला होगा, आनंद जगेगा, निज को निज जान जावेंगे और फिर दुःख का कोई कारण नहीं रहे तब यह मैं अपने आपको किस रूप में अनुभव करुंगा? यह मैं सर्व द्रव्यों से निराला स्वतंत्र हूँ, अर्थात् चैतन्यस्वभाव से कभी चलित न होने वाला सर्व विकारों से रहित स्वरूप, जिसमें किसी भी प्रकार की गंदगी नहीं, ऐसा जानन देखनहार यह मैं आत्माराम हूँ । ऐसी प्रतीति में ही हम अपना भला कर सकते हैं, और-और तरह के विकल्पों में तो हम अपने जीवन को व्यर्थ ही खो रहे हैं ।