वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 201
From जैनकोष
ता किहे गिण्हदि देहं णाणाकम्माणि ता कहं कुणदि ।
सुहिदा वि य णाणारूपा कहं होदि ।।201।।
शुद्ध स्वभाव वाले जीवों के बंधन, देहग्रहण व पर्यायवैचित्र्य की असंभवता का प्रश्न―यदि यह जीव शुद्ध स्वभाव वाला है तब यह बतलाओ कि यह ऐसे अपवित्र शरीर को कैसे ग्रहण कर लेता कि यह औदारिक शरीर जहाँ मल मूत्र हड्डी खून आदिक घृणित पदार्थ हैं । इस घृणित पदार्थमय शरीर को ग्रहण कैसे कर ले ? क्यों ग्रहण करता है ? करना ही कैसे पड़ेगा ? शुद्ध होने पर या मानने पर जीव इस शरीर को ग्रहण नहीं कर सकता । क्योंकि जब जीवों का अनादि से ही शुद्धस्वभाव है तो उस स्वभाव से क्या शरीर ग्रहण बन सकता है ? कभी नहीं बन सकता । और, भी सुनो―यदि सभी जीव कर्ममलकलंक से रहित हैं, शुद्ध हैं तो फिर ये नाना प्रकार की जो क्रियायें दिखने में आती हैं, गमन हुआ, आना हुआ, सो गया, भोजन किया, बैठ गया या व्यापार लेखन आदिक जो क्रियायें देखी जाती हैं या ज्ञानावरण आदिक कर्मों का जो बंधन बताया है वह इन सब बातों को कैसे कर सकेगा, क्योंकि जीव शुद्ध है । इस शुद्ध स्वभाव में यह योग नहीं बनता कि वह किन्हीं क्रियाओं को कर सके या कर्मों को बाँध सके । और, यह भी शंका होती है कि जीव यदि शुद्ध स्वभाव वाला है तो फिर इसके ये नानारूप कैसे बन गए ? कोई सुखी है दु:खी है, कोई अमीर है गरीब है, कोई बड़ी सवारियों पर चलता, कोई नंगे पैरों पैदल चलता, किसी को बड़ा सम्मान मिलता है किसी का बड़ा अपमान होता है आदिक नानारूप जो ये दिख रहे हैं ये रूप कैसे बन जायेंगे ? जीव शुद्ध स्वभावी यदि है तो उसके ये सब रूप नहीं बन सकते, किंतु देखा जा रहा है कि कोई जीव पशु है, पक्षी है, मनुष्य है, सुखी है, दु:खी है, अनेक क्रियायें करते हैं तो ये सब बातें कैसे संभव हैं ? ऐसा एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया । उसके उत्तर में कहते हैं ।