वर्णीजी-प्रवचन:कार्तिकेय अनुप्रेक्षा - गाथा 202
From जैनकोष
सव्वे कम्मविवद्धा संसरमाणा अणाइकालम्हि ।
पच्छा तोडिय बंधं सिद्धा सुद्धा धुवा होंति ।।202।।
अनादि से कर्मनिबद्ध एवं संसरमाण जीवों की बंधध्वंस होने पर सिद्धि और शुद्धि का प्रकाश―सर्व जीव अनादिकाल से कर्मनिबद्ध हैं, संसार में घूम रहे हैं । बाद में कर्मों को तोड़कर बंधन को तोड़कर यह जीव शुद्ध सिद्ध हुआ करता है । शुद्ध क्या कहलाता है ? इस संबंध में दो दृष्टियों से समझना है―द्रव्यदृष्टि से और पर्यायदृष्टि से । द्रव्यदृष्टि से तो शुद्ध होने का अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने आपके स्वरूप से सत् है । किसी दूसरे पदार्थ से मिलकर सत् नहीं बनता । उसमें किसी दूसरे पदार्थ का संसर्ग नहीं है । प्रत्येक पदार्थ अपने ही सत्व से सत् है । द्रव्यदृष्टि का इतना अर्थ है । जैसे कि हम स्थूल रूप से आँखों देखते हैं कि अनेक पदार्थ हैं और वे अत्यंत भिन्न-भिन्न हैं, उनमें एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से संसर्ग नहीं है यह मोटे रूप में देखते हैं । वस्तुत: यहाँ प्रत्येक अणु सत् है किसी भी सत् पदार्थ में किसी अन्य सत् पदार्थ का मेल नहीं है, तादात्म्य नहीं है, प्रवेश नहीं है । अपने ही सत्त्व से प्रत्येक पदार्थ सत् है । तो यों पर से निराला और अपने आपके स्वरूप से तन्मय निरखने को द्रव्यशुद्धि कहते हैं । पर्यायशुद्धि का अर्थ है कि पदार्थ में किसी प्रकार की औपाधिक अशुद्धि न रहे । अशुद्धि सब औपाधिक हुआ करती है । जैसे जीव में कर्म का बंध है, शरीर का संसर्ग है, सुख-दुःख होते हैं, नाना क्रियायें होती हैं, अनेक भवों में गमन होता है, ये सब अशुद्धियाँ हैं । इन परमाणुओं में स्कंधरूप बन जाना, अनेक प्रकार के परिणमन होना ये अशुद्धियाँ हैं । ये पर्यायें, ये अशुद्धियां न रहें, पदार्थ अपने स्वरूप से स्वयं जैसा है उसही प्रकार से व्यक्त हो जाय उसे कहते हैं पर्याय से शुद्ध । अब तीसरी बात यह समझिये कि पर्याय से शुद्ध कोई पदार्थ हो जाता है तो वहाँ यह-यह मानना पड़ेगा कि ऐसा शुद्ध होने का स्वभाव उसमें पड़ा है । जिसको हम शुद्ध द्रव्यदृष्टि से ज्ञात कर रहे हैं । उक्त विवरण से यहाँ यह निर्णय करना है । तो यों द्रव्यशुद्धि और पर्यायशुद्धि की बात कही है ।
द्रव्यशुद्धि, पर्यायशुद्धि व स्वभावशुद्धि―द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक ये दो नये विभाग हैं । अब हम जिस दृष्टि से निरखेंगे उस दृष्टि का हमें उत्तर मिलेगा । पर्यायदृष्टि से देखने पर तो यह मैं अशुद्ध आत्मा हूँ, पर द्रव्यदृष्टि से यदि हम इसे निरखें तो द्रव्यदृष्टि की शुद्धि का अर्थ यह है कि प्रत्येक पदार्थ परद्रव्य से विविक्त व स्वद्रव्य में अविभक्त है । तो द्रव्यदृष्टि से जैसा शुद्ध देखा जाता है उस तरह का शुद्ध अब भी सब पदार्थ हैं । याने द्रव्यदृष्टि से यह निरखना है कि किसी दूसरे सत् का मेल होकर सत् नहीं बना । और, यह त्रिकाल न्याय की बात है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही सत् से सत् है, दूसरे सत् से मिल करके सत् नहीं बना । अब उसमें द्रव्यशुद्धि व पर्यायशुद्धि के अतिरिक्त स्वभावशुद्धि की बात सुनिये । स्वभावशुद्धि इन दो के बीच की बात है । उस द्रव्य में ऐसा सत् होने का स्वभाव पड़ा हुआ है । तो स्वभाव स्वभावरूप हुआ करता है । जैसे गर्म जल में भी अगर पूछा जाय कि इस जल में ठंडा होने का स्वभाव है कि नहीं ? तो कहना पड़ेगा कि गर्म होने पर भी आखिर जल में जल का स्वभाव तो ठंडा है, तो कोई कहे कि कहाँ व्यक्त है ठंडापन ? तो स्वभाव स्वभावरूप में व्यक्त रहा करे यह नियम नहीं है । इसी को पर्याय अशुद्धि कहते हैं―स्वभाव है जैसा वैसा प्रकट नहीं हो पाना, उससे भिन्न प्रकार से प्रकट हो रहा तो यहाँ जीव को पर्यायदृष्टि से निरखने पर यह अनादिकाल से अशुद्ध है और स्वभावदृष्टि से निरखें तो जीव में स्वभाव शुद्धता का है, पर प्रकट नहीं है, और द्रव्यदृष्टि से शुद्ध को निरखते हैं तो उसका तो केवल इतना ही अर्थ है कि अन्य पदार्थों का मिलकर एक द्रव्य सत् नहीं हुआ है, किंतु यह अपने स्वरूप से ही सत् है दूसरे के स्वरूपसे सत् नहीं है । जैसे कहते हैं स्वचतुष्टय से सत् होना, पर चतुष्टय से असत् होना बस इतना ही अर्थ द्रव्यशुद्धि का है । पर्यायशुद्धि का अर्थ है कि पर्याय उस प्रकार से व्यक्त हो गई जैसे पदार्थ का निरपेक्ष स्वरूप है । और, उसमें जो शक्ति स्वभाव है उस शक्ति स्वभाव का अर्थ है कि इस द्रव्य में अपने आपके सत् रूप बने रहने की शक्ति है और ऐसे ही यह व्यक्त बने, ऐसा इसमें स्वभाव है । तो फलित, अर्थ यह है कि हम यद्यपि शुद्ध चैतन्य स्वभाववान हैं, लेकिन परिणति हमारी मलिन है, हम कर्मों से बद्ध, संसार में रुलते हैं और यहाँ कर्मबंधन है । जब कोई जीव अपने इस कर्मबंधन को तोड़ देता है और इस कर्ममलकलंक से रहित होता है तो यह शुद्ध होता है । इस कारण यह जानना चाहिए कि जीव का स्वभावशुद्धता का होनेपर भी परिणति अनादि से ही इसकी मलिन चली आ रही है इस कारण तपश्चरण संयम आदिक उपायों से इस जीव को शुद्ध होना चाहिए, तब ही सदा के लिए संसारसंकटों से यह जीव मुक्ति पा सकता है ।
शुद्धस्वभाव होने पर ही जीव की अनादिबद्धता और विचित्रता―जितने जगत में जीव हैं वे सब अपने में ऐसा तो जानते ही हैं कि मैं हूँ । मैं जीव हूँ तो जो मैं जीव हूँ उस जीव में जीव का ही स्वरूप है । दूसरी चीज का स्वरूप नहीं है । जब जीव में जीव का ही स्वरूप है तो इसके मायने यह हैं कि जीव का स्वभाव शुद्ध है । अगर जीव में किसी अन्य चीज का स्वरूप आ जाय तो जीव न रहा । जीव है ज्ञानमय, जानता रहे, तो जानन का जिसका स्वभाव है ऐसा जीव अपने शुद्ध स्वभाव में रहता है, लेकिन आज देखो तो कोई जीव शुद्ध नहीं नजर आता । जीव पर्याय में बंधे हैं, शरीर से बँधे हैं, कर्म का बंधन है । कोई सुखी है, कोई दु:खी है । नाना प्रकार की इन जीवों की हालत हो रही है । और ये सब दुःखी भी हो रहे हैं तो व्यर्थ ही कल्पनायें करके दुःखी हो रहे हैं । कोई धनिक है तो वह भी चैन में नहीं, धन बढ़ाने की ही धुन बनी रहती है, शांति नहीं मिल पाती, परिणाम यह होता है कि वे धनिक भी आराम से नहीं रह पाते, क्योंकि तृष्णा लगी है । निर्धन भी इस बात को सोचकर दुःखी रहता है कि मेरे पास धन नहीं है । वह निरंतर परपदार्थों की चाह बनाये रहता है इससे दुःखी रहा करते हैं । ये परपदार्थ तो अत्यंत भिन्न चीज हैं इनकी चाह से इस जीव को कुछ लाभ भी नहीं है । पर इन परपदार्थों को चाह कर यह जीव अपने सिर पर दु:ख लादे फिरता है । और इसी से यह इतना बड़ा कर्मबंधन बंध गया है ।
कर्मबंधन से मुक्ति का उपाय सम्यग्दर्शन सम्यज्ञान सम्यक्चारित्र का लाभ―हम आप कोई ऐसा उपाय बनायें कि जिससे चलकर इस कर्मबंधन से छुटकारा प्राप्त हो जाय । तो मूल उपाय यह है कि पहिले यह जान लें कि मैं इतना जीव हूँ, यह देह मेरा नहीं है, यह वैभव मेरा नहीं है, मैं सर्व से निराला हूँ । आखिर वह समय भी तो आना है कि इस देह को छोड़कर जाना पड़ेगा । यहाँ का सब कुछ छूट जायेगा । यदि यहाँ की कुछ भी चीज मेरी होती तो मेरे साथ जाती । मैं तो केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान ही मेरा वैभव है, ज्ञान ही मेरा प्राण है, वही मेरा सर्वस्व है । इसके आगे मेरा कुछ नहीं है । यहाँ तो अज्ञानी जीवों ने बाह्य में अपनी इज्जत मानकर अपने को दुख में डाल रखा है । यह जीव तो ऐसी भावना बनाये कि में तो इस देह से भी निराला हूँ, देह भी मेरा स्वरूप नहीं है । जब ऐसे अकेले स्वरूप को देखा जायेगा तो कुछ ध्यान बनेगा, मन के विकल्प जो यहाँ वहाँ दौड़ते हैं वे समाप्त होंगे । जब हम अपने स्वरूप को निहारें तो वह हुआ सम्यग्दर्शन और अपने स्वरूप को जानेंगे तो वह हुआ सम्यग्ज्ञान और रागद्वेष न करके अपने स्वरूप को जानते रहेंगे तो यही हुआ सम्यक्चारित्र । संकटों से छूटने का उपाय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है । तो जब यह मनुष्य सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्र में अपना कदम रखता है, तपश्चरण करता है, निःसंगता में तृप्त रहता है तो समस्त बंधों को तोड़कर फिर यह जीव सिद्ध बनता है और वहाँ अनंतकाल तक शुद्ध आनंद में रहता है । जन्म जरा मरण जो महान कठिन बाधा में हैं उनसे सदा के लिए मुक्त हो जाता है । अब सिद्ध भगवान जन्म न लेंगे । जन्म लेते हैं संसारो मोही प्राणी अथवा कर्मबंधन से बँधे हुए प्राणी । सिद्ध भगवान कर्मों से रहित हैं, वे जन्म जरा मरण आदि रोगों से परे हो गए हैं । तो देखिये आनंद कहाँ मिला है ? वह आनंद मिला है केवल रहने में । यहाँ तो कोई अकेला रहना ही नहीं चाहता, लेकिन उस आनंद को प्राप्त करने के लिए वैसा ही अकेला बनना पड़ेगा । ऐसा अकेला कि अपने में इन विचारों को, इन विकारों को साथ न रखकर केवल ज्योतिमात्र ज्ञानस्वरूप निरखना होगा । इसी उपाय से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी अन्यथा संसार के जन्म मरण ही करने पड़ेंगे । तो निर्णय इस गाथा में यह किया है कि सभी जीव अनादिकाल से कर्मबंधन में बंधे हैं, जन्म मरण की परंपरा में पड़े हुए घोर दुःख
सह रहे हैं । सिद्ध भगवान भी ऐसे विकट बंधन को तोड़कर सिद्ध हुए हैं और सदा के लिए शुद्ध अनुभूति में विराजमान हैं । अब यह जिज्ञासा होती है कि वह बंधन क्या कहलाता और मूल में उसका बंध किस प्रकार है जिससे यह जीव बद्ध होता है ।