वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 99
From जैनकोष
सुरासुरनराहींद्रनायकैरपि दुर्धरा।
जीवलोकं क्षणार्द्धेन बध्नाति यमवागुरा।।99।।
यम का फंदा― इस काल का ऐसा विकट फंदा है कि यह क्षणमात्र में जीवों को फाँस लेता है। इस काल के फंदे का निवारण सुरेंद्र, असुरेंद्र, नागेंद्र बड़े-बड़े नायक कोई भी निवारण नहीं कर सकते। एक कल्पना से विचार करो। मृत्यु का, आयुक्षय का नाम यमराज है। यह यमराज शब्द बहुत प्रसिद्ध शब्द है। काल कहो, यमराज कहो, ये सब आयु क्षय के नाम हैं। किसी भी भाव का मूर्तिमान् रूप रखना, पुष्पवत् उसमें व्यवहार करना यह एक अलंकार की पद्धति है और उस ही पद्धति में नाना देवी देवतावों के भी रूप बन गए। यों ही यमराज एक शब्द है जो बहुत प्रसिद्ध है।
यम की समान दृष्टि― यह यमराज इतनी समान दृष्टि वाला है, इतना पक्षपात रहित है कि इसकी निगाह में सब संसारी जीव एक समान हैं। वह न तो यह पक्ष रखता कि यह छोटा बालक है, बड़ा रंगा चंगा है, बड़ा सुंदर लगता है इसे न खावें और यह बूढ़ा है, बेकार है, गरीब है इसे खा लें― ऐसा रागद्वेष, ऐसा पक्षपात यमराज के नहीं है। उसकी दृष्टि में सब एक समान हैं। गर्भ में रहने वाला बालक हो, जवान हो, बूढ़ा हो सब पर उसका एक समान बर्ताव है। जिस किसी को भी खा ले अर्थात् किसी भी जीव की कभी भी मृत्यु हो जाय। यह एक अलंकार में समझिए। इसके फंदे का, आयुक्षय हो जाने पर मरण का निवारण करने में कोई समर्थ नहीं है। हाँ मृत्यु को जिसने जीता है, मृत्यु की भी जिसने मृत्यु कर डाली है ऐसा कोई है तो वह परमात्मा है। जिसकी अब कभी भी मृत्यु न होगी । जब जन्म ही नहीं है तो मरण कहाँ से होगा? जितने जन्म वाले जीव हैं चाहे वे बड़े इंद्र हों, चक्री हों, इस काल का फंदा ऐसा है कि जिस किसी पर जब चाहे पड़ जाय। इसका निवारण कोई नहीं कर सकता।
कलियुग का प्रभाव― मनुष्य को चाहिए तो यह कि ऐसी सद्बुद्धि लाये जिसमें दया हो, न्याय हो, क्षमा हो, उदारता हो, इन ही बातों से इसका उद्धार है और कुछ समय पहिले या बहुत कुछ पूर्व समय में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते थे, पर यह एक कलियुग का प्रताप है कि ऐसी विचारधारा के लोग कदाचित् पाये जाते हैं और बहुत से देशप्रसिद्ध लोग इन भावों से दूर रहा करते हैं, जिनके कारण सभी समाज पर आपत्ति आ जाती है। इसका नाम है कलयुग, कलियुग, करयुग कुछ भी शब्द कह लो। करयुग का तो अर्थ यह है कि अपने हाथों कमाओ तो खाओ, नहीं तो कुछ नहीं है। करयुग का दूसरा अर्थ यह है कि कर पर कर लगाना अर्थात् टैक्स पर टैक्स लगना, उसका यह युग है। कलियुग का अर्थ यह है― कलि मायने पाप उसका युग अर्थात् कलियुग मायने पापों का युग। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, छल, विश्वासघात सभी का बोलबाला है। इस समय इसका नाम है कलियुग और कलयुग का अर्थ यह है कि कल मायने मशीन उसका युग। कलयुग मायने मशीनों का युग। बड़े-बड़े मशीनों का अविष्कार जिस समय हो उसे कहते हैं कलयुग। ये सबकी सब बातें आज के युग में घट रही है।
कुबुद्धि― भैया ! कहाँ तो वातावरण ऐसा चाहिए था कि मनुष्यों की प्राय: प्रवृत्ति धर्म में होती, दया में, दान में, शील में, भक्ति में, संयम तपस्या में इनमें वृत्ति होती और इस दुर्लभ नरजीवन को इस संयम से साधकर इसका अपूर्व फल पाते परलोक सुधरता, वहाँ भी धर्म का वातावरण मिलता और कभी तो शरीर से, कर्मबंधन से वह छुटकारा पा लेता, किंतु बजाय इस सद्बुद्धि के दुर्बुद्धियों का प्रसार होता है। शास्त्रों में बताया है कि दूसरे के प्राणहारी शस्त्रों के, हथियारों के निर्माण करने में बुद्धि चलना यह सब कुश्रुतज्ञान है। लोगों का विध्वंस हो, लोगों में आकुलता बढ़े, क्षोभ हो, संक्लेश हो ऐसे साधनों के बनाने में बुद्धि के चलने का नाम है कुश्रुतज्ञान। इस अशरण संसार में कहाँ तो लगना चाहिए था और कहाँ लग गये हैं, यही तो एक जगत् का असार प्रसार है। जब यह काल अपना जाल लेकर सामने आता है तब उसका निवारण करने में बड़े-बड़े नायक भी समर्थ नहीं हैं।
आत्महित का विवेक― इस अनित्य भव में अचानक ही जब कभी मृत्यु आ सके ऐसे इस जीवन को परवस्तुवों का मोह हटाकर अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि में उपयोग जाय ऐसा यत्न करने वाला ही बुद्धिमान् है, अन्यथा जो जन्मा है वह तो मरता ही है। जो जन्मे थे वे मरे हैं, जो अब हैं वे अवश्य मरेंगे। न जीवन रहेगा, न देह रहेगा, न वैभव रहेगा, न गाँव, नगर इस गति के विकल्प ये कुछ न रहेंगे। फिर एक नई बात सामने आयेगी। जो अनेक बार पुरानी होकर भी नई-नई के रूप में आती रहती है, आयेगी फिर वहाँ के चक्र में वैसा दु:ख भोगना होगा। कहाँ लगाव रखना, कौन सारभूत है, कौन शरण है, किससे प्रीति निभाने का निर्णय करना, हठ करना, ये सब अज्ञान भरी कल्पनाएँ हैं। इस कारण विभावों का संबंध त्यागकर अब हे मुमुक्षु ! अपने आपके शरणभूत इस अंतस्तत्त्व की ओर आवो।