वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1034
From जैनकोष
संवृणोत्यक्षसैन्य: य: कूर्मोऽंगानीव संयमी।
स लोके दोषपंगाढ्ये चरन्नति न लिप्यते।।1034।।
विषयपरिहारी योगियों की श्लाघनीयता― इस प्रकरण को कहकर इस श्लोक में यह बता रहे हैं कि देखो जिस तरह कछुवा अपने मुख को संकोच लेता है। अपनी गर्दन को ऐसा भीतर कर लेता है कि जिससे जरा भी पता नहीं पड़ता कि इसके सिर भी है इसी प्रकार जो ज्ञानी संयमी मुनिजन हैं वे इंद्रिय की सेना को संकोच कर उन्हें वश कर लेते हैं। वे ही मुनि दोष कर्दम से भरे संसार में रहते हुए भी दोषों से लिप्त नहीं होते। वे जल में भिन्न कमल की भाँति अलिप्त रहते हैं। मुझे मोक्ष पाना है, मोक्ष नाम है कैवल्य का, मुझे खालिस रहना है जिसकी यह दृष्टि बनी है वह इन इंद्रियविषयों को अपने वश में कर लेता है। जो पुरुष इन इंद्रियों को वश में करता है वह पुरुष खाते पीते रहने पर भी हर स्थितियों में अलिप्त रहता है।