वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1035
From जैनकोष
अयत्नेनापि जायंते तस्यैता दिव्यसिद्धय:।
विषयैर्न मनो यस्य मनागपि कलंकितम्।।1035।।
विषयों से अकलंकित मन वाले योगियों के सर्वसिद्धियाँ― जिसका मन इंद्रियों के विषयों से रंचमात्र भी कलंकित नहीं हुआ उनकी दिव्य सिद्धियाँबिना यत्न के अनायास ही सिद्ध हो जाती हैं। संसार में क्या हो रहा। जो चाहता हे उसे मिलता नहीं, जिसे मिल रहा वह चाहता नहीं। मिले हुए की चाह क्या? यह तो सिद्धांत की बात है लेकिन देखो जो ऊँचे सम्यग्दृष्टि चक्रवर्ती तीर्थंकर आदिक महापुरुष हैं उनके चाह नहीं रही है और बहुत-बहुत संपत्तियाँ पड़ी हुई हैं। और जो तृष्णावी पुरुष हैं वे तृष्णा करते रहते हैं पर उन्हें उन चाही हुई चीजों की प्राप्ति नहीं होती। इसकी अगर कोई व्यवस्था करने वाला होता तो उस पर इन अज्ञानियों को बड़ा गुस्सा आता। देखो कैसा मूर्ख है। जिन्हें संपत्ति की चाह नहीं उन्हें संपत्ति दे रहे और हम लोग जो संपत्ति को चाह रहे उन्हें संपत्ति नहीं देते। तो यह तो एक संसार की रीति है। जो विरक्त पुरुष हैं, जो संपत्ति की उपेक्षा करते है उनके पीछे संपत्ति उस तरह से धा धाकर पीछे पड़ती है जैसे कि छाया। कोई छाया को पकड़ने के लिए दौड़े तो छाया दूर भागती जाती है। और कोई छाया की उपेक्षा करके आगे-आगे बढ़ता जाता है तो छाया उसके पीछे लगती है। तो ये इंद्रियजंय विषयसुख ग्रहण करने के योग्य नहीं है। इनको तो एकदम ही मन से निकाल दें। यदि बड़ा पवित्र मन हो जाय, तत्त्वज्ञान में बसा हुआ अंत:करण रहे तो उसके जीवन की क्या तुलना की जा सकती है? इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेना चाहिए कि इन विषयसुखों से प्रीति छोड़ें और ऐसा संयम नियम लें कि जिससे हम वैराग्य की दिशा में बढने के लिए उद्यत हों।