वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1036
From जैनकोष
अयमात्मा स्वयं साक्षाद्भुणरत्नमहार्णव:।
सर्वज्ञ: सर्वदृक् सार्व: परमेष्ठी निरंजन:।।1036।।
विशुद्ध एकत्व शिवस्वरूपता―इस जीव का कल्याण एक मोक्ष ही है। मोक्ष को छोड़कर जितनी भी आवश्यकतायें हैं चाहे चक्रवर्ती इंद्र, धरणेंद्र की जैसी विभूतियाँ भी प्राप्त हो जायें फिर यहाँन कल्याण है, न शांति है। वह मोक्ष मिलता कैसे है? मोक्ष का अर्थ है छूट जाना। मोक्ष में किसे छुटाया गया है और किससे छुटाया गया है। अपने आपके आत्मा को छुटाया है और कर्म, शरीर, विकार आदिक से छुटाया गया हे। प्रत्येक पदार्थ जब केवल अपने स्वरूप मात्र रहता है तब तो वह सुंदर है, शिवरूप है और जब अपने एकत्व स्वरूप को छोड़कर किसी विकार में आता हे तो वह दुविधा में पड़जाता है। यही हालत इस संसार अवस्था में हो रही है। इस आत्मा को आत्मा के मात्र सत्त्व की ओर से देखो तो यह आत्मा स्वयं साक्षात् गुण रत्नों का महान् समुद्र है, लेकिन अपने आपके यह महत्ता न जानने के कारण बाह्य पदार्थों से आशा लगाकर दीन बन रहा है।
किसी का पर से संबंध कल्पने का व्यामोह― जब कि प्रत्येक पदार्थ न्यारे हैं, स्वतंत्र हैं, अपने स्वरूपमात्र हैं, किसी पदार्थ का किसी अन्य पदार्थों के साथ कुछ संबंध ही नहीं है। ऐसी स्थिति में इस आत्मा का संबंध पर से बन कैसे सकता है? संबंध तो बनता नहीं, त्रिकाल भी बन न सकेगा, और यह संबंध मानने की हठ में पड़ा है तो भला लोकव्यवहार में मनुष्य जो दूसरे से बहुत प्रेम रखता है और वह दूसरा उससे शत्रुता रखता है तो लोग उसे लोकव्यवहार में मूढ़कहेंगे। किसी कठिनाई के कारण कोई शत्रु हो तो उससे भी प्रेम करना चाहिए, वह तो एक व्यवहार में कर्तव्य है मगर वस्तुस्वरूप के मंच पर निगाह करें तो जबकि किसी भी अन्य पदार्थ से किसी का कुछ संबंध बन नहीं सकता, और फिर वह संबंध मानने की हठ करे तो उसे क्या कहोगे? प्रीति करने की बात नहीं कह रहे अथवा व्यवहार करने की बात नहीं कह रहे। लोकव्यवहार में शत्रु से भी कोई प्रेम करे तो वह बुरा नहीं माना जा सकता, लेकिन संबंध मानने की बात कही जा रही है। कोई पुरुष अपने ही किसी निकट मित्र से या परिजन से संबंध मान रहा है अंतरंग में तो वह मूढ़ है क्योंकि यहाँ ज्ञान का गला घोट दिया गया। पदार्थ अपने-अपने स्वरूपमात्र हैं, इसकी दृष्टि नहीं रही। संबंध मान लिया इस आशय को मिथ्यात्व कहते हैं। अभी रागद्वेष की बात नहीं कह रहे हैं किंतु किसी अन्य पदार्थ से संबंध मानने की बात कह रहे हैं।
मुक्ति का मूल उपाय तत्त्वागम― भैया ! यदि यह सत्य विज्ञान हो जाय कि यह मैं आत्मा त्रिकाल भी किसी परपदार्थ का अधिकारी नहीं, करने वाला नहीं, भोगने वाला नहीं, यह तो मात्र में ही हूँ। जो मुझमें खूब ज्ञान दर्शन शक्ति आनंद आदिक है, केवल उस अपने गुणमात्र हूँ और प्रतिसमय अपने गुणों का ही परिणमन करता रहता हूँ, ऐसा यह मैं पिंड हूँ, ऐसा ही इतना मेरा काम है और इतना ही मेरा अनुभवन है। इससे बाहर मेरा न द्रव्य है, न प्रदेश है, न परिणमन है, न शक्ति है, ऐसा अपने आपको एकत्व में देखो तो यह है संसार के क्लेशों से छूटने का उपाय, मुक्त होने की तरकीब। देखिये कितनी सुगम और सस्ती तरकीब है अपने आपको सुखी बनाये रहने की, मगर इतनी सरल तरकीब को भी न करके कोई उद्दंड बना फिरे तो फिर उसको सुखी करने में कौन निमित्त बनेगा?
गुणरत्नमहार्णव होने पर भी जीव की वर्तमान स्थिति― यह आत्मा साक्षात् गुणरत्नों का महान् समुद्र है ऐसा अपने आपको अनुभवना चाहिए। घर-गृहस्थी के कामों में बहुत-बहुत झगड़ा-फसाद विकल्प चिंताएँ शोक आदिक अनेक आपत्तियों में विचरना होता है। यदि घंटा आध घंटा किसी भी समय अपने आत्मा के सत्यस्वरूप की बात गुनने में, स्वरूप तक पहुँचने के यत्न में क्षण बीते तो समझिये कि अपना जीवन सफल है, अन्यथा संसार में अनंत जीव हैं, कीड़े-मकौड़े हैं, यहाँ पैदा हो गए फिर तो यह हालत समझिये कि जैसे किसी स्थान पर बहुत सी कीड़ी निकली हों। जैसे दो अंगुल लंबे पतले जानवर होते हैंजिन्हें गिजाई कहते हैं, ये एक दूसरे के ऊपर डोलते चलते फिरते रहते हैं, उद्देश्य उनका कुछ नहीं रहता, उनके हित अहित का कोर्इ मार्ग नहीं, किस ओर चलना है यह भी उनका लक्ष्य नहीं, बस चलना ही चलना काम है। यों ही समझिये कि ये दो पैर से चलने वाले मनुष्यकीट बस चलना-चलना ही इनका काम है। जैसे किसी चौहट्टे पर यहाँसे मनुष्य निकले, वहाँसे मनुष्य निकले, यद्यपि उनका आहार, भय, मैथुन, परिग्रह इत्यादि संज्ञाओं के वश होकर कुछ लक्ष्य रहता हे तो यों ही धन संज्ञाओं के वश होकर उन कीड़ों का भी तो लक्ष्य रहा करता है। इसके मन है सो इन संज्ञाओं को कलात्मक ढंग से दुरुपयोग करता है और उन कीड़ामकौड़ों के मन नहीं है सो वे बेचारे बिना कला के अपने आहार, भय, मैथुन आदि की संज्ञा किया करते हैं। मनुष्यों और उन कीड़ों में इतना ही अंतर समझिये कि यह मनुष्य कलात्मक ढंग से आहार, भय, मैथुन आदि की पूर्ति करता है और वे कीट मकोड़े बिना कला के आहार, भय, मैथुन आदिक संज्ञाओं की पूर्ति करते हैं। उनकी अपेक्षा और विशेष काम क्या हुआ इसमें।
शांति के प्रसंग में― भैया ! जरा सोचिये, शांति तो चाहिए ना। यहाँतो आपका वर्तमान का भी तगाजा है कि हमें शांति चाहिए। कुछ ऐसी धर्म की बात नहीं कही जा रही है कि जो कुछ परोक्ष हो, कोई अन्य बात हो जिसके करने में कोर्इ कष्ट की बात कही जा रही हो अथवा जिसका फल परोक्षभूत हो।यह तोअभी के तगाजे की बात कही जा रही है कि शांति तो सबको चाहिए। सब अपने-अपने चित्त से पूछो। और कुछ थोड़ा मिलान करके भी देख लो कि जब हम केवल अपने आत्मा के इस एकत्वस्वरूप की ओरदृष्टि देते हैं, उस समय की स्थिति में हमारी क्या अवस्था होती है, शांति अथवा अशांति होती है और जब हम परपदार्थों की ओर आकर्षित होते हैं, दृष्टि देकर केवल पर को प्रसन्न करने में, निग्रह करने में विकल्प मचाया करते हैं, आहार, भय, मैथुन, परिग्रह के विकल्प मचाया करते हैं, उस स्थिति में निरख लो कि शांति मिलती है क्या? कोई बड़ी बात नहीं कही जा रही है। घर का काम वही, दुकान वही, उसी तरह का रहन-सहन सब कुछ वही रहे जब तक कि इतनी सामर्थ्य नहीं है कि निरारंभ निष्परिग्रह होकर केवल एक आत्मा के ध्यान के लिए ही सारे क्षण लगा दिये जाय, सो जब तक चले, होने दो अन्य बातें लेकिन अपने आप पर दया करके अपनी शांति के अर्थ इतना तो समय निकालें ही, चाहे सब कुछ काम छोडने पड़ें, चाहे अधूरा ही कुछ छोड़नापड़े लेकिन घंटा आध घंटा ध्यान स्वाध्याय आदिक विधियों से अपने आत्मा के गुणरत्नों की कुछ खबर ले लिया करें, कुछ दृष्टि बना लिया करें। यह अपने आपकी शांति के लिए बात कही जा रही है।
आत्महित― आत्मा का हित हे मोक्ष, मोक्ष का अर्थ है― कर्म, रागादिक-विकार और शरीर इन तीन से संबंध छूट जाना। यह आत्मा उन तीनों कर्मों से मुक्त होकर केवल अपने आपके स्वरूपमात्र रह जाय, यह स्थिति है पूर्ण कल्याण की। उसी स्थिति के पाने का उपायहै आत्मध्यान। उस आत्मध्यान के ही सिलसिले में यह कहा जा रहा है कि जिसको ध्यान करना है, जिसका ध्यान करनाहै वह यह आत्मा स्वयं साक्षात् गुणरत्नों का समुद्र हे और सर्वत्र है। यह ऊपर निरखकर नहीं कहा जा रहा है। यह पर्याय अथवा परिणमन देखकर नहीं कहा जा रहा है। किंतु आत्मा का स्वभाव है ज्ञान और ज्ञान का काम है जानना। कितना जानना ऐसी सीमा ज्ञान ने ज्ञान में नहीं बनायी। यहाँतो एक अपने आपके विषय कषायों की ओरपरिणति होने से यह ज्ञान अधूरा रह गया है, स्वच्छ नहीं हो सका है पर ज्ञान को ज्ञान की ओरसे इतनी सामर्थ्य प्राप्त है कि जगत में जो कुछ भी सत् हो वह इसके ज्ञान में आ जाय। हाँ जो बातें कल्पनाओं से रची गई हैं वैसी बातें ज्ञान में न आयेंगी, पर कल्पनाएँकरने वाले पुरुष का जो कुछ भी विकार है, जो कुछ भी परिणमन है वह ज्ञान में आ सकेगा, पर कल्पनाएँज्ञान में नहीं आया करती हैं। कल्पनाएँकरना भी कलंक है। जैसे जीव का कलंक मोह रागद्वेष करना है इस ही प्रकार जीव का कलंक कल्पनाएँकरना भी है। जैसे लोकव्यवहार में भी कहते हैं कि एक देश का दूसरे देश के साथ सामान्य संबंध स्थापित हो जाना यह मित्रता की निशानी है। वहाँभी विशेष संबंध को महत्त्व नहीं दिया। विशेष संबंध भावी काल में बिगाड़करने वाला हो जाताहै। इसी तरह समझिये कि ज्ञान का काम सामान्यरूप से सर्व सत् का जानना याने विकल्परहित होकर सामान्यविशेषात्मक वस्तु को जानना ठीक है, उस सामान्य स्वरूप की ओर निरखिये, यह आत्मा सर्वज्ञ है।
पुरुष की विश्वप्रतिभासिता― जब सबके जानने का स्वभाव इस आत्मा का है अथवा पर्यायरूप में परमात्मतत्त्व को सामने निरखकर सोचिये, जब सबको जानने वाला यह आत्मा हे तो स्वयं में यह स्वदर्शी बन गया बाहर में इन पदार्थों को देख देखकर सर्वदर्शी नहीं बना जाता। यों तो बाहर में इन सब पदार्थों को जान जानकर सर्वज्ञ भी नहीं बनाजाता किंतु कुछ कहना आवश्यक है कि जब यह आत्मा सबको जानता है तो उनका आकार ग्रहण में आया लेकिन सर्वदर्शीपना तो सबको जानने वाले इस आत्मा को लख लेने मात्र से बना जा सकता है। यह आत्मा सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है और सबके लिए हितरूप है। आत्मा की जो स्वयं स्थिति है, आत्मा की ओरसे जो स्वयं प्रवर्तन है वह किसी जीव को बाधा देने वाला नहीं होता।
कषाय से असुहावनापन― दूसरे प्राणी दु:खी होते हैं तो दूसरों की कल्पनाओं और विषयों की खुदगर्जी परिणाम का अनुमान करके दु:खी होते हैं। आत्मा की स्वयं की परिणति हो उससे कोई दु:ख नहीं होता। एक बालक को यदि खेल-खेल में दो चार मुक्के भी मार दो तो वह रोता नहीं है बल्कि हँसता है और कषायवश कोई एक अँगुलीभी मार दे तो वह बच्चा रो उठेगा। यद्यपि घूँसे की चोट अँगुली की चोट की अपेक्षा 100 गुनी अधिक है लेकिन वह बच्चा भी कषाय का अनुमान कर रहा है। जब घूंसा मारा तो उस समय बच्चे ने समझा कि इसके कषाय नहीं है, इस कारण रोने के बजाय वह हँसता है और क्रोधवश जब अँगुली मारा तो कषाय का अनुमान करके वह बच्चा रोने लगता है, तो इस जीव को दूसरे की कषाय सुहाती नहीं है। देखिये न तो धन के कम ज्यादा होने का यहाँक्लेश है और न अपनी इज्जत होने न होने का क्लेश हे किंतु दूसरे प्राणी का कषाय सुहाती नहीं है केवल इस बात का क्लेश है। कोई पुरुष बड़ेऊँचे ओहदे पर चढ गया अथवा कोई धनिक बन गया या किसी का बड़ा यश छा गया तो दूसरा मनुष्य इस बात से दु:खी नहीं है किंतु धन बढने से, इज्जत बढने से, यश छाने से वह अपने को बड़ा सुखी अनुभव कर रहा है, ऐसी उसकी कषाय सोच सोचकर यह जीव दु:खी होता है।
अपनी कषाय न सुहाने व न उत्पन्न करने का सौरभविस्तार― देखो भैया ! दूसरे की कषाय तो इसे सुहाती नहीं है और अपनी कषाय इसे सुहा रही है इसलिए अपनी कषाय इसे दिखती तक भी नहीं है। तो अब समझ लीजिए कि जो दु:ख इसे दूसरे की कषाय न सुहाने से हो रहा है तो क्यों हो रहा है कि कषाय बुरी चीज है। दूसरे की कषाय इसे सुहाती नहीं है। सो यहाँभी उल्टा काम यह कर रहा है कि दूसरे की कषाय न सुहाये इससे लाभ न था पर अपनी कषाय न सुहाये इससे लाभ था। तो जब यह आत्मा केवल अपने एकत्वस्वरूप की ओर आता है, अपने शुद्ध गुण रत्नों की सुध लेता हे तो यह जीव किसी दूसरे जीव के लिए दु:ख का कारण नहीं बनता। जब हम कषाय करें और दूसरे लोग हमारी कषाय समझते रहें तो हम उनके क्लेश के लिए निमित्त हैं। जब हम अपने गुणरत्नों का ध्यान कर उनकी खोज में ही रहकर केवल अपनी साधना करते हों तो उस समय हम सर्व जीवों के लिए हितरूप हैं, किसी के लिए हम अहितरूप नहीं हैं।
आत्मा का परमेष्ठित्व― यह आत्मा परमेष्ठी है। परमात्मा को निरखें तो वह तो पर्याय में भी परमेष्ठी है, परमपद में स्थित है। अब जैसा स्वरूप प्रभु का है वैसा ही स्वरूप अपने आत्मस्वरूप का है। इसके ही सत्त्व को देखें तो यह अपने परमज्ञायकपद में स्थित है, अपने आपकी ओरसे जो वर्तना बनी उसकी दृष्टि से यहाँ परमेष्ठी समझिये। यह आत्मा निरंजन है। जिस आत्मतत्त्व का ध्यान करके संसार के समस्त क्लेशों से छूट जाने की बात उत्पन्न होगी उस आत्मा की बात कही जा रही है। यह निरंजन है, इसमें अंजन नहीं लगा है। जैसे आँख का अंजन आँख में इतनी दृढ़ता से चिपका रहता है कि उसे दूर किया जाना कठिन है। फिर भी वह अंजन तो बाहरी मल है। इसी प्रकार इस आत्मा में शरीरकर्म और विकार का अंजन लगा है और यह अंजन भी इतनी दृढ़ता से लगा हुआ है कि इसे दूर करना सुगम नहीं बन रहा है। कोई पुरुष शरीर को छोड़कर दो हाथ दूर बैठ जाय ऐसा भी नहीं कर पाता। इसका कर्म थोड़ी देर के लिए अलग हो जाय ऐसा तो नहीं हो पाता। इसका विकार इसमें कितनी दृढ़ता से आलिंगित है ऐसे अंजन की तरह लगे हुए इन मलों से रहित यह आत्मतत्त्व है, ऐसे आत्मा का जो ध्यान करते हैं उनको शांति मिलती है।
परोपेक्षा और आत्मोन्मुखता में ही लाभ― भैया ! बाहर में जितने जो कुछ भी समागम हैं वे सब मायारूप हैं, पौद्गलिक हैं, स्कंध ही स्कंध हैं और जो कुछ सचेतन प्राणी नजर आते हैं वे भी परामर्थभूत नहीं हैं। जीव कर्म और शरीर इन तीन का वह पिंड है, और उनमें जो मनुष्य नजर आते हैं वे भी ये ही है और आश्चर्य की बात तो यह है कि जैसे हम जन्ममरण के चक्र में बहे जा रहे हैं, हम अपने आपको मलिन प्राणी जैसा पा रहे हैं इस ही प्रकार ये सभी मनुष्य जो समागम में प्राय: मिले हुए हैं, पापी हैं, मलिन हैं, जन्म-मरण के चक्र में बहे हुए जा रहे हैं, मायारूप हैं, स्वयं विपत्ति में ग्रस्त हैं, स्वयं है, असहाय है, पराधीन है, पिंडरूप है, ऐसे विडंबनारूप पराधीन विपत्तियों से ग्रस्त मलिन पापयुक्त इन मनुष्यों में ही नाम चाहते हैं, उनको कुछ दिखाना चाहते हैं यह कितनी बड़ी मूढ़ता की बात कही जाय। जरा कुछ अपने आपके ओरनिरखकर अनुमान करके तो देखिये। इन बाह्य पदार्थों की उपेक्षा करके इनका विकल्प तोड़कर केवल अपने आत्मा के उस स्वरूप को निहारें। मैं सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूपमात्र हूँ। केवल ज्ञान और आनंद का विकास इतना ही मात्र में हूँ, इतनी ही मेरी दुनिया है, इतने तक ही मेरा अधिकार है, मैं सबसे न्यारा ज्ञानमात्र हूँ, इस भावना में वह ध्यान बनता है जिस ध्यान के प्रताप से संसार के ये समस्त संकट टूट जाते हैं। ऐसे आत्म ध्यान के लिए हमें कुछ समय देना चाहिए अपने आत्मस्वरूप की सुध करने के लिए।