वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1107
From जैनकोष
क्वचिन्मूढं क्वचिद्भ्रांतं क्वचिद्भीतं क्वचिद्रुतम्।
शंकितं च क्वचित् क्लिष्टं रागाद्यै: क्रियते मन:।।1107।।
रागादिकों द्वारा मन की दु:स्थिति:―ये रागादिक भाव मन को ऐसा बना देते हैं कि यह मन कभी किसी पदार्थ में मोहित हो जाता है और कभी किसी पदार्थ में। कभी मन भ्रमरूप बन जाता है बावलों जैसा। वहाँ देखा, यहाँ गया, वहाँ गया। यों बावला बन जाता है और कभी यह मन भयभीत हो जाता है। ये सब रागादिक के फल हैं।तीव्र राग होने के ये फल हैं कि मूढ़ बन जाय, भ्रांत बन जायऔर भयभीत बन जाय। जिस पदार्थ में राग है उसके पीछे सारे क्लेश बने रहते हैं। एक गुरु शिष्य थे। गुरु को कहीं से 7-8 किलो की एक सोने की मूर्ति मिल गयी। जहाँ कहीं भी जाये वह ईंट शिष्य के सिर पर रख दे। गुरु आगे चले और शिष्य पीछे। जब कभी जंगल में आवे तो गुरु शिष्य से कहता कि देखो बेटा चुपकर चलना, आहट न हो। क्योंकि यहाँ डर है। एक दिन क्या हुआ कि रास्ते में उस शिष्य ने एक कुवें में उस ईंट को पटक दिया। गुरु ने शिष्य से फिर कहा― देखो बेटा यहाँ डर है, चुपकर चलना, आहट न होने पाये।तो वह शिष्य कहता है― महाराज आप खूब नि:शंक होकर चलो, डर को तो मैंने कुवें में पटक दिया है। तो किसी भी वस्तु में अगर रागभाव बना है तो मन की ऐसी ही स्थिति बन जाती है। मन में भ्रांति रहती है, मन भयभीत रहता है। निष्कर्ष यह निकला कि हम आपका जो कुछ भी दु:ख है वह परवस्तु में जो राग बना है उसका दु:ख है। इस दु:ख को मिटाने के लिए हम आपको भरसक प्रयत्न करना है।बहुत-बहुत श्रम करते लेकिन उन श्रमों से फायदा क्या? दु:ख तो होता है रागभाव से। यदि ऐसा तत्त्वज्ञान जगे कि मैं विषयों में विषयों से दूर हो जाऊँ, तो फिर समझिये कि सारे क्लेश दूर हो गए।