वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1108
From जैनकोष
अजस्रं रुध्यमानेऽपि चिराभ्यासाद्दृढीकृता:।
चरंति हृदि नि:शंका नृणां रागादिराक्षसा:।।1108।।
रागादिकों की कुपथ में नि:शंकवृत्ति― मुनियों के निरंतर वश किए हुए मन में भी ये चिरकाल से वासना में चले आये हुए रागादिक राक्षस नि:शंक होकर इनमें परिणति करते हैं अर्थात् बहुत यत्न किया ज्ञान वैराग्य, तपश्चरण, संयम आदिक से अपने आपके मन को बहुत पवित्र बनाया, फिर भी अनादिकाल से लगी हुई चाह का जो अभ्यास चल रहा था, वासना चल रही थी उस संस्कार के कारण इतना ऊँचे उठने पर भी ये रागादिक नि:शंक होकर इनमें नाचते हैं और फिर वहाँ आत्मा का पतन होता है। इससे बढ़कर और क्या उदाहरण होगा कि कोई साधुपुरुष उपशम श्रेणी में चढ़कर 11 वें गुणस्थान में पहुँच जाता है और वहाँ राग का उदय आता है तो कैसा गिरते-गिरते पहिले गुणस्थान में पहुँच जाता है? मोह और मिथ्यात्व में पग जाय, इससे बढ़कर और क्या उदाहरण हो सकता है? ऐसा प्रमाद करके थोड़ी त्रुटि करे, लापरवाही हो जाय तो ये रागादिक भाव आत्मा में उत्पन्न होकर जो कुछ किया हुआ था धर्म उन्नति उसे भी ये खतम कर देते हैं। बहुत जरूरी चीज है कि ज्ञान में उपयोग बना रहे। इसके लिए स्वाध्याय और सत्संग ये दो अवश्य होने चाहिए। स्वाध्याय व सत्संगति करके ज्ञान अपना विशुद्ध बना रहे तो हम इन रागादिक भावों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। स्वाध्याय व सत्संग को इस जीवन में प्रमुख स्थान देकर रागादिक भावों पर विजय प्राप्त करें। यही शांत होने का सुगम और सीधा उपाय है।