वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1181
From जैनकोष
अहो कैश्चिन्महामूढैरज्ञै: स्वपरवंचकै:।
ध्यानान्यपि प्रणीतानि श्र्वभ्रपाताय केवलम्।।1181।।
अहो ! आश्चर्य के साथ कहा जा रहा है कि अज्ञानी मोही, मूढ़ अज्ञानी पुरुषों ने जो कि अपने आपको भी ठग रहे हैं और पर को भी ठगते हैं उन्होंने ध्यान भी ऐसा किया जो केवल नरक में अपने आपको ढकेले। ध्यान बिना कोई नहीं है। सब जीवों में ध्यान बनता है पर किसी के खंडज्ञान है तो किसी के अच्छा ज्ञान है। जो अज्ञानी पुरुष हैं, मोह के वशीभूत हैं, उनके खंडध्यान जगता, आर्त रौद्र ध्यान बनता। रौद्रध्यान में तो यह जीव क्रूरता करके मौज मानता है, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पापकार्यों में मौज मानता है और आर्तध्यान में कुछ पीड़ा होने पर तो प्रभु की कुछ खबर रहेगी, पर सांसारिक मौजों में प्रभु की खबर नहीं रहती। ध्यान ही है सिर्फ इस जीव के पास। ध्यान से ही यह जीव नरक में पहुँचता, ध्यान से ही संसार के आवागमन से छुटकारा प्राप्त करता। जब ध्यान से ही सब कुछ प्राप्त होता है तो विशुद्ध ध्यान ही करना चाहिए ना। जैसे बालक लोग पंगत का खेल खेलते हैं। कुछ पत्ते बालकों के सामने रखते गए और कहते गए कि लो यह रोटी, कुछ कंकड बालकों के सामने रखते गए और कहते गए कि लो ये चने। अरे जब कल्पना करके ही कहना है तो चना और रोटी कहकर क्यों परोसते? पत्तों को पूड़ी कचौड़ी कहकर परोंसे और कंकड़ों को बूँदी कहकर परोंसे। ऐसे ही जब ध्यान से ही अपना हित अहित प्राप्त होता है तो क्यों न अपना विशुद्ध ध्यान बनायें? तब यों समझिये कि अखंड भावना से ही सर्व कुछ सिद्धि है और खंड भावना से कुछ भी सिद्धि न होगी।