वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1182
From जैनकोष
विषायतेऽमृतं यत्र ज्ञानं मोहायतेऽथवा।
ध्यानं श्र्वभ्रायते कष्टं नृणां चित्रं विचेष्टितम्।।1182।।
यह खेद की बात है कि अमृत तो विष की तरह लगे, इसी प्रकार यह भी खेद की बात है कि ज्ञान मोह बढ़ाने के लिए बन जाय और ध्यान नरक के लिए हो जाय, ऐसी विपरीत चेष्टा आश्चर्य उत्पन्न करने वाली है। अमृत भी विष बन जाय अथवा कोई अमृत को विष बना ले तो यह उसके लिए खेद की बात है। ज्ञान को कोई मोह के लिए बना ले, जैसे कीड़ा-मकोड़ों में कितना ज्ञान है और पशुपक्षियों को उनसे विशेष है और मनुष्य को सबसे विशेष है, सो तेज मोह मनुष्य कर सकता है। पशु-पक्षी भी इतना तीव्र मोह नहीं कर सकते। वैसे अज्ञानरूप है ठीक है मगर तीव्र मोह मनुष्य कर पाते हैं क्योंकि उनके ज्ञान होता है। वह ज्ञान इस ढंग से ढाते हैं कि मोह बढ़ाते हैं। ये पशु मकान नहीं बनवाते, सभा नहीं जोड़ते, वे अधिक मोह क्या करेंगे? अज्ञानरूप परिणाम है, सो मोह है, यह बात जुदा-जुदा है, पर जान जानकर मोह बढ़ाया सो मनुष्य बढ़ा सके, पशु-पक्षी नहीं बढ़ा सकते, कीड़े-मकोड़े नहीं बढ़ा सकते। तो यह खेद की बात है कि जो ज्ञानमोह दूर करने के लिए होना चाहिए सो मोह बढ़ाने के लिए बन बैठा, इसी प्रकार ध्यान होता है मोक्ष की प्राप्ति के लिए। स्वर्ग मोक्ष या कर्म उत्तम भव में उत्पन्न होना उसके लिए है ध्यान, पर कोई ध्यान को नरक के लिए बना लेता है। रौद्र ध्यान करे, खोटा ध्यान करे, पापमय भावना रखे तो नरक जायगा वह। तो ध्यान जो कि मोक्ष की प्राप्ति के लिए है उसे ही कोई नरक जाने के लिए बना ले तो यह खेद की बात है। शिक्षा इसमें यह दी गयी है कि भाई अमृत पाया है तो उसे विषवत् बना डाले तो यह तो एक साधारण सी बात है। कोई खोटा मेल कर दे, कोई योग्य देश काल का संपर्क बना दे, इसी प्रकार ज्ञान को मोह में ढा देना भी आसान बात नहीं है। मनुष्य में साहित्यिक कलायें भी हैं। एक दूसरे से प्रेम करे उसके लिए कितनी तरह के वचनालाप हैं, कितनी तरह के बोलचाल हैं, इतना विलक्षण वाचनालय पशुवों में कहाँ है? वे मोह करते हैं पर यों ही मूढ़ता पूर्ण करते हैं। और यह मनुष्य बड़ी चतुराई से मोह करता है। तो इस मनुष्य ने ज्ञान को मोह का साधन बनाया, मोक्ष का नहीं बनाया, यह भूल है। इसी तरह ध्यान एकाग्र चित्त होने का नाम ध्यान है। किसी भी विषय में एक चित्त बन जाय वही ध्यान कहलाता। अब किसी शुभ विषय में, अच्छे विषय में एकाग्र चित्त बने तो वह स्वर्ग और मोक्ष के लिए है, और खोटे पाप के लिए, विषयों के लिए क्रोध, मान, माया, लोभ जिसमें बढ़े, क्रूरता बढ़े, लोभ लालच बढ़े ऐसा ध्यान बनेगा तो वह ध्यान नरक के लिए होता है। सो यह खेद की बात है कि जो ध्यान मोक्ष का साधनभूत बनना चाहिए था, सो बन गया है नरक के लिए।