वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1189
From जैनकोष
प्रशस्तेरसंकल्पवशात्तद्भिद्यते द्विधा।
इष्टानिष्टफलप्राप्तेर्बीजभूतं शरीरिणाम्।।1189।।
कहते हैं कि ध्यान दो प्रकार का है― एक प्रशस्त ध्यान और दूसरा अप्रशस्त ध्यान। भला और बुरा। सो जीव के इष्ट अनिष्टरूप फल की प्राप्ति का कारण है यह ध्यान। शुभ ध्यान का उत्तम फल होता है और अशुभ ध्यान का बुरा फल होता है। अशुभ ध्यान से कर्मबंध होता और उसके उदयकाल में क्लेश होता है। तो अशुभ ध्यान से निराकुलता मिलती है। शुभ ध्यान करने वाले के ऐसा बल प्रकट होता है कि उसका आत्मस्वरूपी किला इतना मजबूत हो जाता कि वह किसी भी परपदार्थ की कैसी ही चेष्टा से अपने आपमें बिगाड़ नहीं मान सकता, और है भी नहीं बिगाड़। हम ही अपने विचार बना बनाकर अपना बिगाड़ करते हैं। परपदार्थ से बिगाड़ नहीं है।