वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1196
From जैनकोष
अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम्।
रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमंगिनाम्।।1196।।
पहिले आर्तध्यान का नाम है अनिष्टसंयोगज। जो अपने को इष्ट नहीं है, जिसे देखना भी नहीं चाहते हैं, जिससे दूर बने रहना चाहते हैं ऐसे अनिष्ट पदार्थ का संयोग जुड़ जाय तो उसमें जो कुछ पीड़ा होती है वह है अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान। देख लो जगत में किसी का कोई न इष्ट है, न अनिष्ट है, मुझसे समस्त जीव भिन्न हैं, किसी भी जीव के परिणमन का प्रभाव मेरे में नहीं आता। मैं उनकी परिणति को निरखकर निमित्त बनाकर अपने आपमें ही अपना एक प्रभाव उत्पन्न करता हूँ। प्रभाव का अर्थ है― चाहे बुरा हो, चाहे अच्छा हो, एक स्थिति से कुछ विलक्षण स्थिति बन जाय इसका नाम है प्रभाव। तो अनिष्ट तो कुछ दुनिया में है नहीं लेकिन मोह का ऐसा प्रभाव है कि मान्यता बनी रहती कि अमुक मेरा है, अमुक यों है, इष्ट है, अनिष्ट है, इस ही मान्यता से इस जीव को कष्ट हो रहा है। यही है अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान। दूसरा है इष्टवियोगज आर्तध्यान। जो पदार्थ इष्ट है उसका वियोग हो जाने से उसके मिलाप के लिए चिंतन करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है। किसी का कोई गुजर गया हो तो जहाँ से जिस गली से वह रोज आया करता हो उस गली की ओट खटकी लगाकर रोज देखता रहता है। उसे पता है कि उसका वियोग हो गया, फिर भी ऐसा भाव बना रहता कि वह आता होगा। इस प्रकार का ध्यान करना आर्तध्यान है। यह नहीं हो पाता कि चलो अब उसकी दृष्टि छोड़कर विशुद्ध आत्मध्यान में लगें तो उसका हित ही कर लें, यों विकल्प नहीं उठता, मोह का ऐसा प्रभाव है। तीसरा आर्तध्यान है रोग के प्रकोप से जो पीड़ा आदिक चिंतन होता है वह है वेदनाप्रभव। कोई रोग हो गया, अब उसमें विचार बुरा चल रहा, हाय बढ़ न जाय, कब मिटेगा, बड़ी पीड़ा है, इस प्रकार के आर्तपरिणाम होते हैं। तो यह तीसरा आर्तध्यान है वेदनाप्रभव और चौथा ध्यान है निदान। आशा, प्रतीक्षा, इच्छा होने में भी बड़ा क्लेश है ना, तो इसी का नाम निदान है। किसी सांसारिक पद की वांछा करना इसका नाम है निदान। तो आप समझ लो कि इच्छा में भी कितने क्लेश उठाने पड़ते हैं? इच्छा हुई और भागे-भागे फिरे। तो यह इच्छा भी, निदान भी आर्तध्यान है। अब इन चारों में से अनिष्टसंयोगज ध्यान का स्वरूप विवरण से कहते हैं।