वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1197
From जैनकोष
ज्वलनवनविषास्त्रव्यालशार्दूलदैत्यै: स्थलजलबिलसत्त्वैर्दुर्जनारातिभूपै:।
स्वजनधनशरीरध्वंसिभिस्तैरनिष्टै र्भवति यदिह योगादाद्यमार्त्तं तदेतत्।।1197।।
इस लोक में कोई ऐसा उपद्रव आये जिससे स्वजन, कुटुंबी जन का धन का और शरीर का नाश होने को हो। जैसे आग लग जाय तो सब कुछ नष्ट होगा ना, तो अग्नि लगने पर जो चिंतन बनता है, खेद होता है, हाय सब भस्म हो जायेगा, मेरे इष्ट, मेरे प्रिय, मुझे सुख देने वाले अमुक पदार्थ खाक हो जायेंगे, ऐसा चिंतन आता है तो उसे एक पीड़ा उत्पन्न होती है। जल के बीच कोई फँस गया हो, चारों तरफ से जल ने घेर लिया हो तो उस समय कितनी पीड़ा होती है? हाय अब कैसे प्राण बचेंगे, क्या हाल होगा, यों अनिष्ट चिंतन करना सो अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। इसी तरह विष, सर्प, सिंहादिक, क्रूर जानवर, दुश्मन, राजा आदिक इन सभी अनिष्ट पदार्थों के संयोग से जो ध्यान बनता है उसे कहते हैं अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान। यह तो हुआ अनिष्टसंयोगज ध्यान का स्वरूप। अब इसे रोका कैसे जाय? इस पर विचार करें। रोकने की मूल तरकीब तो यह है कि हम उसे अनिष्ट मत मानें। उसे अनिष्ट न मानने से फिर ये खोटे ध्यान दूर हो सकते हैं। कैसे समझें कि यह अनिष्ट नहीं है? तो उसका स्वरूप समझना होगा। यह मैं आत्मा जैसा परिणाम करता हूँ वैसा फल पाता हुँ। किसी दूसरे की चेष्टा से मेरे आत्मा में कुछ परिणमन नहीं हो जाता। कोई चेष्टा करे, गाली-गलौज करे तो उसकी गाली को सुनकर हम खुद कल्पनाएँ बनाते हैं और अपनी कल्पनाओं से भावना वासना से अपने आपको दु:खी कर डालते हैं। कोई दूसरा जीव मुझे दु:खी नहीं कर सकता। तो भेदविज्ञान की बात दृष्टि में रहे, अपने को सबसे निराला ज्ञानमात्र आनंदमय समझा करें तो फिर लोक में मेरे लिए कहीं कुछ अनिष्ट नहीं है। कोई आदमी गाली दे गया, अब पर्याय की ओर हम दृष्टि डालते हैं अपने शरीर को निहारकर जो यह अनुभव करते हैं कि यह मैं हूँ तो गाली देने वाले पर उसे क्रोध उमड़ आता है, ओह ! इसने मुझे यों कह दिया। तो जब अपनी पर्याय में आत्मा की बुद्धि रही और भेदविज्ञान बना, मैं तो देह भी नहीं हूँ। ये लोग भी क्या हैं जिनका समागम हुआ है, बच्चे महिलायें कुछ भी ये तो मेरे से अत्यंत निराले हैं। तीन काल भी इनका और मेरा संबंध नहीं बन सकता। मैं तो केवल अपने ही भावों से दु:खी होता हूँ, मेरा अनिष्ट करने वाला इस जगत में कोई परजीव नहीं है, परपदार्थ नहीं है। ऐसा दृढ़ निश्चय हो तो अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान को जीता जा सकता है। जो आज अनिष्ट जँच रहा है कुछ समय बाद ही आपके मन के कषाय के अनुकूल कुछ चेष्टा बन जाय तो उसे मित्र मान लेते हैं और जिसे आज मित्र मान रहे हैं जिसके बिना खा पी नहीं सकते, रह नहीं सकते, कहो कुछ ऐसी परिस्थिति बन जाय कि वह दुश्मन हो जाय, शत्रु मानने लगे, अनिष्ट मानने लगे, यह तो अनुभव की बात है, अपने में विचार कर लीजिए, किसे मानें कि ये अनिष्ट है? जाड़े के दिनों में ये ही कपड़े बड़े अच्छे लगते थे मोटे वाले, अब गर्मी के दिनों में ये कपड़े सुहाते नहीं हैं। तो किस बात का इष्ट मानना और किस बात का अनिष्ट मानना? कुटुंब में प्रथम पृथक कुछ समय तक विवाह के बाद पति-पत्नी में बहुत अनुराग रहता है, कुछ समय बीत जाने पर जरा-जरासी बात पर मुँहजोरी होने लगती है। तो उनको बीच-बीच में क्लेश उठाना पड़ता है। तो इष्ट क्या रहा? सीधी सी बात तो यह है कि जो इष्ट होगा वह अंत में बड़ा दु:ख देकर ही दूर होगा। उस इष्ट के प्रति विचार विचारकर दु:ख होगा। किसमें विश्वास करें, किसकी आशा रखें कि उससे हमें सुख मिलेगा? संसार के कोई भी पदार्थ विश्वास के योग्य नहीं हैं। तब क्या इष्ट और क्या अनिष्ट? अपनी कल्पनाएँ करते हैं और उसके अनुसार इष्ट अनिष्ट मान लेते हैं। तो कोई अग्नि, जल, विष, शस्त्र, सर्प आदिक किन्हीं के द्वारा जो कोई क्लेश माना जाता है। अनिष्ट मानकर उन्हें उनके संबंध से फिर जो एक पीड़ा उत्पन्न होती है अथवा कल्पना बना डाली जाती है वह सब है अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान।