वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1198
From जैनकोष
तथा चरस्थिरैर्भावैरनेकै: समुपस्थितै:।
अनिष्टैर्यन्मन: क्लिष्टं स्यादार्तं तत्प्रकीर्तितम्।।1198।।
चर और स्थिर अनेक अनिष्ट पदार्थों की प्राप्ति होने पर मन क्लेशरूपी अनुभव करने लगता है उसी का नाम है प्रथम आर्तध्यान। ज्ञानमात्र अमूर्त मैं आत्मा हूँ, ऐसी दृष्टि में पहुँच आया और फिर उस ही का अभ्यास बनाने का प्रयत्न हो तो अनिष्ट को अनिष्ट न माना जाय, ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है। तो अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान तब होता है जब अज्ञानभाव बसा होता है। फिर चलने वाले पदार्थ जीव पुरुष कुटुंब और न चलने वाले पदार्थ जैसे ये अजीव वैभव उनकी प्राप्ति होने पर तो अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर मन क्लेशरूप होता है, उसको आर्तध्यान कहते हैं। अब चोरों को घर का यह मालिक अनिष्ट जँचता है क्यों कि वह जग रहा है। वे चोर सोचते हैं कि इसे नींद क्यों नहीं आ जाती? जिस चाहे को जो चाहे अनिष्ट मान लेते हैं। किसी शिकारी को साधु दिख जाय तो वह शिकारी उसे अनिष्ट मानने लगता है। वह सोचता है कि आज साधु के दर्शन हो गए, कोई शिकार न मिलेगा। जिसके मन में जो आता है वह इष्ट अनिष्ट बन जाता है। ऐसी कल्पना अनिष्ट पदार्थ के संयोग होने पर जो उसका चिंतन बनता है उसे अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान कहते हैं। जो चर और अचर पदार्थों की प्राप्ति होने पर मन कष्टरूप अनुभव करने लगता है उसी का नाम यह है प्रथम आर्तध्यान। और भी सुनो।