वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1199
From जैनकोष
श्रुतैर्दुष्टै: स्मृतैर्ज्ञातै: प्रत्यासत्तिं च सुंसृतै:।
योऽनिष्टार्थैर्मन:क्लेश: पूर्वमार्त्त तदिष्यते।।1199।।
जो सुने देखे, स्पर्श में आये हुए पदार्थों को निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थों को, मन को क्लेश हो तो उसे पहिला आर्तध्यान कहते हैं। कोई पदार्थ जो कभी देखा नहीं, सुना नहीं, अनिष्ट है, वह उस पदार्थ के प्रति संभावना भी चित्त में आये तो वहाँ आर्तध्यान होता है। कोई भोगे गए वैभव आदिक अथवा स्मरण में आ गये हैं ऐसे निकट प्राप्त हुए अनिष्ट पदार्थों से मन को क्लेश होना उसका नाम है अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान। इससे कर्म का बंध होता है और नरक आदिक गतियों का बंध होता है। कभी किसी के फंदे में आकर, संग में आकर मंदिर जाना पड़े और वहाँ यह बड़ा बुरा मानता रहे, व्यर्थ में यहाँ आकर समय खोना पड़ा, ऐसा सोचे तो वह मंदिर में रहकर भी आर्तध्यान बना रहा है। तो जहाँ कोई दूसरा पदार्थ अनिष्ट जँचे तो वहाँ जो कुछ भी ध्यान बनता, वियोग के लिए ही ध्यान बनता। जिस चीज को हमने अनिष्ट मान लिया उसको अपनाने का भाव रहता है या जल्दी से अलग हो जायें, यह भाव रहता है? तो देखा हुआ हो कुछ अथवा स्मरण में आया हो कुछ या किसी प्रकार जाना हुआ हो, निकट में आया हुआ हो, ऐसे अनिष्ट पदार्थों से जो मन को क्लेश होता है उसे अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान कहते हैं। यह ध्यान दु:खदायी है और यह सब संसारी जीवों में पाया जाता है।