वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1264
From जैनकोष
क्षुद्रेतरविकल्पेषु चरस्थिरशरीरिषु।
सुखदु:खाद्यवस्थासु संसृतेषु यथायथम्।।1264।।
नानायोनिगतेष्बेषु समत्वेनाविराधिका।
साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिर्मैत्रीति पठयते।।1265।।
सूक्ष्म और वादर दो भावों रूप जीवों में, त्रस और स्थावर यों दो भावोंरूप जीवों में, यह जीव सुख दु:ख आदिक वासनाओं में जैसे-तैसे उहरे हुए नाना भावयोनियों में, प्राप्त होने वाले जीवों में समानता से न विराधना करने वाली ऐसी महत्त्व को प्राप्त समीचीन बुद्धि मैत्री भावना कही जाती है, अर्थात् संसार के समस्त जीवों को उन्हें इस तरह से निरखावो, कोई जीव सूक्ष्म है कोई जीव वादर है। यद्यपि दो भेद एकेंद्रिय में ही बताये हैं― सूक्ष्म पृथ्वीकाय, वादर पृथ्वीकाय। सूक्ष्म एकेंद्रिय वादर एकेंद्रिय इन दो इंद्रियों में भेद नहीं बताया। इसका कारण है दो, तीन, चार और पंचइंद्रिय जीव ये सब वादर ही होते हैं। तब सूक्ष्म और वादर कहने में सब जीव आ गए। अथवा त्रस और स्थावर कहने में सब जीव आ गए। स्थावर एकेंद्रिय और त्रस जीव दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय और पंचइंद्रिय। इन समस्त जीवों में विराधना न हो, ऐसी समता हो कि किसी भी पुरुष का अहित न विचारे। न अहित की प्रवृत्ति करे ऐसी भावना का नाम मैत्री भावना है। मैत्री शब्द का सही भाव यह है कि अनुत्पत्ति दु:ख उत्पन्न न हो ऐसी अभिलाषा रखना, इसका नाम मैत्रीभाव है। जैसे लोग कहते हैं कि अमुक अमुक का घनिष्ट मित्र है तो मित्र होने का अर्थ क्या हुआ कि उसके दु:ख उत्पन्न होने की अभिलाषा नहीं रखता है। तो सब जीवों में किसी भी जीव को दु:ख उत्पन्न न हो ऐसी अभिलाषा रखना इसका नाम है मैत्री। सर्व जीव केवल परिचय वाले ही नहीं किंतु जिसका आमने सामने का परिचय तो नहीं है परंतु ज्ञानविधि से और आगमविधि से जाना सबको जा रहा है ऐसे सर्वसंसारी प्राणियों में किसी भी जीव की विराधना न करने का भाव हो जायगा। इसे मैत्री भावना कहते हैं। जैसे रामचंद्रजी के समय की प्रासंगिक घटना एक कवि ने कहा है। जिस समय रामचंद्रजी लंका को जीतकर घर आये और बडे आराम से बहुत समारोह की सभा हो रही थी। तो सब लोगों को राज्य वितरण कर चुके थे। तुम अमुक प्रदेश का राज्य सम्हाल लो। सबको राज्य सौंप दिया। लेकिन हनुमान को नहीं सौंपा। तो हनुमान भरी सभा में हाथ जोड़कर कहते हैं कि हे महाराज ! हमसे जो सेवा बनी है सो आप खुद जानते हैं, लोग भी समझते हैं। रामचंद्रजी के समय में सबसे अधिक सेवा हनुमान ने की थी सीता का पता लगाना, युद्ध में बड़ी कुशलता दिखाना आदि। तो हनुमान कहते हैं कि आपने सब लोगों को तो राज्य दिया पर मुझे कुछ भी नहीं दिया। चाहिए मुझे कुछ नहीं, पर चिंता यह है मुझे कि आपने मुझे भुला क्यों दिया? तो रामचंद्रजी जवाब देते हैं― मय्येव जीर्णतां यातु, यत्त्वयोपकृतं कपे। नर: प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिवांछति। हे हनुमान जी ! तुमने हमारा उपकार किया सो उस उपकार की मुझे सुध भी न रहे यह मैंने तुम्हें दिया। लोग सुनकर आश्चर्य में पड़े, हनुमान भी आश्चर्य में पड़े कि मुझे यह क्या दे रहे हैं? जो तुमने उपकार किया वह सब उपकार में भूल जाऊँ, उसकी सुध न रहे यह दे रहा हूँ हनुमान तुमको। तो सब लोगों को इसमें कुछ संदेह हुआ कि यह क्या दिया जा रहा है? तो संदेह मिटाने के लिए रामचंद्रजी फिर कहते हैं―नर: प्रत्युपकारार्थी विपत्तिमभिवांछति। हे हनुमान ! यदि तुम्हारे उपकार का हमें ख्याल रहेगा तो चित्त में यह बात आया करेगी कि मैं इनके उपकार का बदला चुकाऊँ। तो बदला देने का अर्थ यह है कि हनुमान !तुम पर विपत्ति आये और फिर उस विपत्ति को दूर करके तुम्हारे उपकार का बदला चुका लूँ। तो उपकार की सुध रखने में प्रत्युपकार की पुष्टि होती है। इन पर विपत्ति आये और तब मैं इनकी विपत्ति मेटूँ ऐसा मैं नहीं चाहता। यहाँ मैत्री भावना में यह कह रहे हैं कि संसार के समस्त प्राणियों में किसी के प्रति भी विपत्ति न चाहे, इसका नाम है मैत्रीभाव।