वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1291
From जैनकोष
तृणकंटकवल्मीकविषमोपलकर्द्दमै:।
भस्मोच्छिष्टास्थिरक्ताद्यैर्दूषितां सत्यजेद्भुवम्।।1291।।
ऐसी भी जगह जहाँ त्रण बहुत रहते हों, त्रण के नीचे कोई कीड़े भी रह सकते हैं उन पर आवागमन करने से उनकी हिंसा है, अथवा उन त्रणों के नीचे के स्थान में विषैले सर्प पक्षी आदिक भी रहते हैं, वह प्रासुप स्थान नहीं है, विषैले जानवरों का स्थान है ऐसी जगह रहने से क्षोभ का अवसर न आ सके, अतएव जहाँ त्रण का स्थान हो वह ध्यान के योग्य नहीं है। जहाँ कंटक बहुत रहते हों, बैठने में भी कंटक चुभा करते हैं, चलने फिरने में भी कांटे चुभते हैं वह स्थान भी ध्यानी के योग्य नहीं है। ध्यान में आने पर फिर उपद्रव उपसर्ग आयें तो उन पर विजय करें, सहनशील बनें, पर पहिले से ही जानबूझकर ऐसे स्थान में रहना योग्य नहीं है। जहाँ बामियां रहती हैं जिनमें सर्पों का निवास होता है ऐसा स्थान भी ध्यानी के योग्य नहीं है, क्योंकि मन है उसमें शल्य और शंका रह सकती है। नि:शंकता से वहाँ ध्यान नहीं बन पाता। स्थान होना चाहिए साफ-सुथरा, कुछ ऊँचा, कुछ अच्छी कड़ी जगह का और जहाँ अधम पुरुष न रहते हों, पापी जनों का निवास न हो ऐसा विशुद्ध स्थान ध्यानी पुरुषों के ध्यान के योग्य हे, इसके विपरीत जिस स्थान में भय हो, शंका हो, मोह उत्पन्न हो, विकार हो वह स्थान ध्यान के योग्य नहीं हे। जहाँ ऊँचा-नीचा अधिक स्थान हो, ऊबड़-खाबड़ हो, कीचड़ हो, भस्म राख हो, जहाँ जूठा भोजन डाला जाय, कूड़ा करकट डाला जाय ऐसा स्थान भी ध्यानी के योग्य नहीं है, जिस स्थान में रहकर मन भी प्रसन्न न हो उसे उस स्थान में चित्त की एकाग्रता क्या बनेगी, क्षोभ ही रहेगा, अतएव ऐसा क्षोभकारक स्थान ध्यानी के योग्य नहीं कहा गया है। ऐसे ही जहाँ हाड़, खून, माँस, आदिक निंद्य वस्तुवें हों उस दूषित स्थान को ध्यान करने वाला छोड़ दे। कषायीखाना पास बस रहा हो, जहाँ दुर्गंध फैल रही हो; हांड़, खून, माँस भी जगह-जगह पाये जाते हों, गिद्ध आदिक पक्षी जहाँ हड्डी-माँस आदिक चूँटने के लिए उड रहे हों वह स्थान ध्यानी के योग्य नहीं है। ध्यानसाधना करना है एक आत्मा का। आत्मविशुद्धि उस ज्ञानी के होती है जिसका उपयोग आत्मा के विशुद्ध ज्ञानानंदस्वरूप को ग्रहण करता है और ऐसा उपयोग बनाने के लिए स्थान वह हो सकता है जहाँ वीतरागता का कोई आदर्श हो अथवा वीतरागता में बाधा देने वाले बाह्य पदार्थ न हों। ऐसा स्थान जिसमें मोह विकार, ग्लानि, घृणा, शंका, भय उत्पन्न हों वह स्थान ध्यानी साधु पुरुषों के योग्य नहीं है।