वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1354
From जैनकोष
क्षितिबीजसमाक्रांतं द्रुतहेमसमप्रभम्।
स्याद्वज्रलांछनोपेतं चतुरस्रं धरापुरम्।।1354।।
अब इस मंडल का क्रम से स्वरूप कहेंगे। सर्वप्रथम पृथ्वीमंडल का स्वरूप कह रहे हैं, यह सिद्धि बीज से आक्रांत है अर्थात् पृथ्वी के बीज अक्षर से सहित और गले हुए स्वर्ण के समान वीतरक्त हे जिनका और बज्र के चिन्ह से संयुक्त चौकोर पृथ्वीमंडल है। यह जो पृथ्वीमंडल है यह पृथ्वी बीज के अक्षरों से सहित हैं। पृथ्वी तत्त्व, पृथ्वी देवता आदिक रूप में जो कुछ माना गया है उसमें इसका जो बीच का अक्षर है, कम से कम एक ही अक्षर में जो पृथ्वी का परिचय कराये ऐसा जो बीजाक्षर है, क्षाम क्षीम आदिक उन बीजाक्षरों से जो सहित है और जिसकी...तपाये गए स्वर्ण की तरह है यह पृथ्वी का स्वरूप कहा जा रहा है। जो उत्तम पृथ्वी है वह पृथ्वी तप्तायमान स्वर्ण के समान रूप वाली है और पृथ्वी चूँकि खड़ी हुई है अतएव वह वज्र चिन्ह वाली मानी गयी है और उसका स्वरूप चौकोर है, इस स्वरूप की दृष्टि से इस नासिका से बहने वाली हवा में पहुँचा तो कुछ इस रूप से पहिचानने में आ गया कि जिसकी वायु बाँधकर न निकलती हो। नासिका से जो वायु निकलती है, श्वास निकलती है वह कभी फैली हुई सी निकलती है, कभी एक कोने से बँधी हुई सी निकलती है। तो जो वायु एक कोने से बँधी हुई न निकलकर एक-एक फैली हुई चतुरस्र निकला करे तो वह पृथ्वीमंडल की वायु कहलाती है और उसकी वायु के साथ-साथ यदि आँखों को बंद करके नासिका के अग्रिम स्थान पर कुछ निरखे तो पीत रूप का बिंदु ज्ञात हुआ? ऐसा उस पृथ्वीमंडल की वायु के निकलने के समय का संबंध है। जैसे अब भी आप आँखों को बंद करके आँखों के संधिस्थान में निरखें तो वहाँ किसी न किसी रंग का बिंदु ध्यान में आयगा। पृथ्वीमंडल के समय एक पीताकार बिंदु नजर आता है। यह पृथ्वीमंडल है। आगे यह बतावेंगे कि पृथ्वीमंडल की वायु के समय माना, क्या इष्ट समझें और क्या अनिष्ट समझें? यह एक सामान्यस्वरूप कहा जा रहा है। प्रमाण में कहीं-कहीं स्थलों में उसका विशेष स्वरूप कहा जायगा।