वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1355
From जैनकोष
अर्द्धचंद्रसमाकारं वारुणाक्षरलक्षितम्।
स्फुरत्सुधांबुसंसिक्तं चंद्राभं वारुणं पुरम्।।1355।।
अब यह वारुणमंडल जलमंडल का स्वरूप कहा जा रहा है कि आकार तो अर्द्धचंद्र के समान है। जल की जो एक स्वरूप की मुद्रा बनाई जाती है वह अर्द्धचंद्राकार बनायी जाती है और इसका यह मेल यों बैठाया गया है कि जल का मित्र चंद्रमा है सूर्य नहीं। सूर्य तो जल का एक बैरी जैसा काम करता है। उसे सुखाये, तपाये, किंतु चंद्रकिरणें जल को बढ़ाती हैं अतएव जल की मुद्रा में अर्द्धचंद्र की उपमा दी गई है। आकार जिसका अर्द्धचंद्र हो और जिसमें स्फुरायमान अमृत हो, जल से सींचा हुआ चंद्रमा शुक्ल वर्ण की तरह जिसकी आभा हो वह वरुणमंडल है। अब इस वरुणमंडल का विस्तार कैसे वायु निकली, कितने अंगुल प्रमाण प्रभाव हुआ और किस ढंग से हुआ? ये सब बातें आगे कही जायगी। यह तो वरुणमंडल का एक सामान्यस्वरूप कहा गया है।