वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1381
From जैनकोष
नेष्टघटनेऽसमर्था राहुग्रहकालचंद्रसूर्याद्या:।
क्षितिवरुणौ त्वमृतगतौ समस्तकल्याणदौ ज्ञेयौ।।1381।।
नासिका से श्वास निकलने के 4 मंडल बताये हैं― पृथ्वीमंडल, जलमंडल, तेजोमंडल और वायुमंडल।इनकी पहिचान करना बहुत कठिन है। बहुत दिनों के अभ्यास से ही पहिचान हो पाती है कि हमारी श्वास किस मंडल की निकल रही है? मोटे रूप में यों समझिये कि जो कुछ उष्ण श्वास हो और जिसका प्रभाव नासिका से 8 अंगुल तक पड़े, जो चतुरस्र हो अर्थात् श्वास जो निकली वह चौकोर विदित हो वह तो पृथ्वीमंडल है। जो शीतल हो और अर्द्धचंद्राकार श्वास निकलती हो अर्थात् उल्टी-उल्टी करके उस श्वास के प्रभाव को देखो तो वह प्रभाव अर्द्धचंद्र के आकार जैसा पड़े तथा जिसका प्रभाव नासिका से 12 अंगुल तक पड़े अर्थात् श्वास इतनी दूर तक जाय वह जलमंडल है। जो श्वास चंचल हो, क्षणभर में नासिका के एक कोने से हवा बहे, क्षणभर में दूसरी ओर से बहे इस तरह जो सब ओर बहता हो, कभी किसी कोने से कभी किसी कोने से, श्वास निकली हो, जो कुछ उष्ण हो अथवा शीत भी ही, जिसका प्रभाव नासिका से 6 अंगुल तक पड़े उसका नाम है वायुमंडल और जो अति उष्ण हो, त्रिकोण बहती हो, जिसका प्रभाव 4 अंगुल तक पड़े, जो श्वास कभी ऊँचे की ओर चले कभी नीचे की ओर चले इस प्रकार की श्वास अग्निमंडल कहलाती है। इन चार में से पृथ्वीमंडल और जलमंडल की श्वास प्राय: शुभ कार्यों में शुभ मानी जाती है। जब कभी पृथ्वीमंडल और जलमंडल की श्वास निकली और वह भी नासिका के बायें ओर से निकली तो समझिये कि उसको समस्त कल्याण होने वाले हैं और उस पर राहु ग्रहकाल चंद्र, सूर्य ग्रह आदिक का उस पर प्रभाव न होगा। उसके इष्ट आदिक का विघात न कर सकेगा। यह स्थिति एक कल्याणप्रद स्थिति की सूचना देती है। यद्यपि मुमुक्षु पुरुषों को इन बातों से कोई प्रयोजन नहीं है, किन्हीं ऋद्धिधारी योगीश्वरों को अपनी ऋद्धि से कोई प्रयोजन नहीं है, किंतु जैसे अपने तपश्चरण में बढने वाले योगियों की बीच-बीच में सब ऋद्धियाँ पैदा होती हैं इसी प्रकार ध्यान का अभ्यास करने वाले पुरुषों को प्राणायाम की साधना की विधि के माध्यम से यह सब स्वरविज्ञान उत्पन्न होता है, पर मुमुक्षु को इससे प्रयोजन कुछ नहीं, पर जो एक कला और विद्या है। उसका वर्णन किया है। कदाचित् दूसरों के फल के वास्ते कोई इसका प्रयोग भी कर सकता है। जैसे ऋद्धिधारी मुनीश्वर धर्मात्मावों के उपकार के लिए सिद्धियों का प्रयोग करते हैं ऐसे ही स्वरविज्ञान से जो तत्त्व जाना है उसके उपकार की अपेक्षा से प्रयोग कर सकते हैं पर मुख्यतया मुमुक्षु को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।