वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 1688
From जैनकोष
अय:कंटककीर्णासु द्रुतलोहाग्निवीथिषु।
छिन्नभिन्नविशीर्णांगा उत्पतंति पतंति च।।1688।।
उस नरकभूमि में वे नारकी जीव छिन्नभिन्न खंड-खंड होकर बिखरे हुए अंग से पड़कर बारंबार उछल-उछल के गिरते हैं, सो कैसी भूमि में गिरते हैं कि जहां पर लोहे के कांटे बिखरे हुए हैं और जिनमें गलाया हुआ लोहा और अग्नि है।