वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2107
From जैनकोष
तत्रात्यंतमहाप्रभावकलितं लावण्यलीलान्वितं,
स्त्रग्भूषांबरदिव्यलांछनचितं चंद्रावदातं वपु:।
संप्राप्यौन्नतवीर्यबोधसुमगं कामज्वरार्त्तिच्युतं,
सेवंते विगतांतरायमतुलं सौख्यं चिरं स्वर्गिण: ।।2107।।
कल्पवासी और कल्पातीत देवों की अवस्था―जों देव धर्मध्यान के प्रभाव से स्वर्ग में उत्पन्न होते हैं, जो ग्रैवेयक से नीचे और मध्यलोक से ऊपर हैं वे भी वहाँ अत्यंत प्रभाव सहित हैं, सुंदरता और क्रीड़ावों से युक्त हैं, ये स्वर्गों के रहने वाले देव देवांगनाओं सहित होते हैं, ऊपर के देवों के इतने मंद कषाय हैं कि उनके कामव्यथा नहीं जगती हैं । तब समझ लीजिए कि यह काम की व्यथा होना पाप का उदय है और उसके साधन जुटाना एक क्लेश की चीज है । स्वर्गों से ऊपर के देव जिनका प्रभाव, जिनका सुख, जिनकी वृत्ति, जिनकी धर्मचर्चा का प्रोग्राम स्वर्गों से भी उत्कृष्ट है, वहाँ पर काम की व्यथा नहीं होती है, और वे वहाँ अकेले ही रहते हैं, उनके साथ देवांगनायें नहीं होती हैं ।
कामव्यथित मूर्खों का उदाहरण―दों मूर्ख जा रहे थे, उन्हें रास्ते में मिली एक बुढ़िया उन दोनों मूर्खों ने किया राम-राम, बुढ़िया ने दिया आशीर्वाद । तो वे दोनों आगे चलकर इस बात पर झगड़ने लगे कि बुढ़िया ने आशीर्वाद किसे दिया? एक कहे कि हमें दिया और दूसरा कहे कि हमें दिया । फिर उन दोनों ने सलाह की कि चलो बुढ़िया के पास चलकर पूछे कि तुमने हम दोनों में से किसे आशीर्वाद दिया? गये वे दोनों बुढ़िया के पास । पूछा कि तुमने किसे आशीर्वाद दिया? तो बुढ़िया कहती है कि तुम दोनों में से जो अधिक मूर्ख होगा उसको हमने आशीर्वाद दिया । तो एक बोला―अच्छा बुढ़िया दादी तुम हमारी मूर्खता की कहानी सुने लो ।....सुनावो ।....मेरे दों स्त्री हैं, एक स्त्री तो थी अटारी पर और एक स्त्री थी नीचे । तो जब मैं अटारी से उतरने लगा तौ एक स्त्री ने उपर से हाथ पकड़कर ऊपर को खींचकर कहा―यहाँ आवो, दूसरी ने नीचे पैर पकड़कर खींचकर कहा―यहाँ आओ सो उस रस्सा-कसी में देखो हमारी टांग टूट गयी । तो हम कितना बेवकूफ हैं? दूसरे ने कहा―बुढ़िया दादी अब हमारी मूर्खता की कहानी सुनो ।....सुनावो । मेरे दो स्त्री हैं, एक बार रात में मैं लेटा था, मेरे दोनों हाथ पर दोनों स्त्री सिर रखकर लेटी थीं, मेरे मस्तक के पास कुछ ऊपर में एक दीपक रखा था । एक चूहा आया, दीपक की जलती हुई बाती खींचकर भागने लगा तो वह बाती मेरी आँख पर आ गिरी । अब मैंने सोचा कि यदि किसी हाथ से बाती उठाता हूँ तो इन स्त्रियों को कष्ट होगा, सो बाती न उठाने से देखो मेरी यह आँख फूट गई । तो मैं कितना बेवकूफ हूँ ?....तो अब बतावो बुढ़िया दादी तुमने किसे आशीर्वाद दिया? तो बुढ़िया कहती है कि अच्छा―हमने तुम दोनों को ही आशीर्वाद दिया । सो सर्वत्र समझ लीजिये―ये कामव्यथायें तो पाप के उदय हैं।
देवों के सुख का साधारण जनों पर आकर्षण―स्वर्गों भी जैसे-जैसे ऊँचे स्वर्गों के देव हैं वैसे ही वैसे उनमें विकार कम होता रहता है, लेकिन देवांगनायें हैं सोलह स्वर्गों के देवों के वे देव वहाँ माला, भूषण, वस्त्र दिव्य गंध पुष्प आदिक से युक्त अनेक स्थानों में रहकर अपना चित्त प्रसन्न करते रहते हैं । वे शुक्लवर्ण के शरीर को प्राप्त करते हैं । ज्ञान से वे सुभग हैं, कामज्वर की वेदना से रहित हैं, अंतरायरहित ऐसे सुखों को वे चिरकाल पर्यंत भोगते हैं । देखो―देवों की बात प्राय: सबके चित्त में है, और वे स्थूलविवेकी जब धर्म करते हैं, दान करते हैं, उपवास करते हैं, व्रत पालते हैं तो यह इच्छा रखते है कि मैं देव बनूं, पर देव हैं क्या? ये ही संसारी प्राणी । देवो के चार गुणस्थान बताये गए हैं, इसके मायने यह हैं कि देव संयमासंयम को धारण नहीं कर सकते । संयम की बात तो दूर रहो, लेकिन इससे इतनी बात तो जानी गई कि सबके चित्त में यह बात समायी हुई है कि देवों को सुख बहुत होता है । तभी तो देव जन्म की वांछा रखते हैं मनुष्य लोग, पर मोक्षमार्ग की दृष्टि से जिस में आत्मा का विकास बने उस दृष्टि से देवगति से भी उत्तम यह मनुष्यगति है।
मनुष्यभव का महत्व―यदि कोई धर्म के ढांचे में ढालकर अपना आत्मदर्शन किया करे तो यह मनुष्यगति उस देवगति से भी उत्तम प्रतीत होगी है । जब तीर्थंकर भगवान विरक्त होते हैं तो तपकल्याणक मनाने के लिए देव आते हैं और वे दिव्य पालकी सजाते हैं । प्रभु पालकी में बैठते हैं, और पालकी उठाने को जब देव इंद्र हाथ लगाते हैं तो मनुष्य तत्काल रोक देते हैं, तुम लोग क्या करते हो? इस पालकी में तुम लोग हाथ न लगावो, इस पालकी को हम लोग उठायेंगे । तो देव बोले, अरे हमने गर्भकल्याणक मनाया, जन्मकल्याणक मनाया, अन्य भी कल्याणक मनाये, हमारा अधिकार है पालकी उठाने का । तो मनुष्य बोले―कुछ भी हो पर तुम लोग इस पालकी में हाथ न लगाना । तो लड़ाई हो गई देवों की और मनुष्यों को । दो चार बुजुर्ग निर्णायक चुन लिए । मनुष्य और देवो के बयान ले लिये गये । तब उन निर्णायकों से पूछा गया कि इन भगवान की पालकी उठाने का अधिकारी कौन है? तो उन्होंने बयान किया कि भगवान की तरह का जो संयम धारण कर सके, भगवान की तरह बन स के वह भगवान की पालकी उठाने का अधिकारी है । यह बात सुनकर देवता अपने हाथ पसारकर भीख माँगते हैं कि ऐ मनुष्यों ! यह स्वर्ग की सारी संपदा हम से ले लो, पर अपना मनुष्यत्व हमें दे दो । अब सोचिये कि मनुष्यभव पाने का कितना बड़ा महत्व है?
व्यर्थ की परेशानी―भैया ! सब व्यर्थ ही दुःखी हो रहे कल्पनायें कर करके, जरा सोचो तो सही―इस भव से मरण कर के कहीं के कहीं जाकर पैदा हो गए तो फिर क्या होगा? न कुछ सा यह थोड़ासा क्षेत्र जिसमें अपनी कीर्ति फैलाने की चाह करते हैं यह इतनी बड़ी दुनिया के सामने कुछ गिनती भी रखता है क्या? पर व्यर्थ में ममता कर के कष्ट मान रहे हैं । अरे आज जो कुछ भी समागम प्राप्त है, जितना भी जिसे वैभव मिला है उतना अपनी जरूरत से ज्यादा है ऐसा समझ लो । इसका प्रमाण यह है कि जिन लोगों के पास आप से कई गुना धन कम है उनका भी गुजारा चल रहा है । व्यर्थ की कृपणता रखते, व्यर्थ की लिप्सायें रखते, व्यर्थ के विकल्प बनाते, व्यर्थ की तृष्णायें रखते, ये सब बातें किसलिए की जा रही हैं? अरे मनुष्यभव पाकर तो क्या करना था और क्या करने लगे? करना था धर्मसाधन और लग बैठे विषयसाधन में । कोई लोग पहिले तो बहुत गरीब थे तब धर्मसाधना का समय था, कुछ धर्मकर्म भी करते थे, पर जब कुछ धन अधिक हो गया तो अब धर्मसाधना करने की फुरसत ही नहीं मिलती । उनके पास न स्वाध्याय करने का समय है, न संत समागम करने का समय है । पर बहुत से धर्मात्मा सेठ ऐसे हुए हैं जिनका दो चार घंटे के अलावा शेष समय संत सेवावों में ही व्यतीत होता था, और आज भी कुछ ऐसे लोग मिल सकते हैं, बहुत पहिले जमाने के तो बहुत से उदाहरण आपको मिलेंगे जिन में से बहुतों की आप जानते भी होंगे ।
विशुद्ध भाव से धर्मपालन का अनुरोध―अरे धन कमाता कौन है यह वैभव? क्या ये हाथ पैर कमाते हैं, क्या यह बुद्धि कमाती है? अरे वह तो पुण्य के उदय से प्राप्त होता है । वह पुण्य रस बढता है धर्मभाव से, निर्मलता के परिणाम से । तो प्रत्येक स्थितियों में हमें धर्मसाधना की ओर दृष्टि रखना ही चाहिए । यदि दुःखदायी स्थिति है तो धर्म के प्रसाद से दुःख कटेगा और अगर सुखकारी स्थिति है तो धर्म के प्रसाद से सुख चिरस्थायी होगा । यह धर्मध्यान की बात चल रही है । जो बड़े विशुद्ध भावों से धर्मध्यान करते हैं ऐसे पुरुष मरकर स्वर्गों में और कल्पातीत देवों में उत्पन्न होते हैं । ऐसी बात जानकर मन में अपने लिए इस तरह की लालसा नहीं बनानी चाहिए कि हम भी ऐसे स्वर्गों में उत्पन्न हों । ज्ञानी पुरुषों का ध्येय तो संसार संकट से छूटकर आत्मस्वभाव में रमने का है । पर इस धर्ममार्ग में चलकर भी जो रागद्वेष है उसके कारण ऐसा पुण्यबंध होता है कि ऐसे स्वर्गों में और ऊपर के देवों में उनकी उत्पत्ति होती हे ।