वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2108
From जैनकोष
ग्रैवेयकानुत्तरवासभाजां विचारहीनं सुखमत्युदारम् ।
निरंतरं पुण्यपरंपराभिर्विवर्द्धते वार्द्धिरिवेंदुपादै: ।।2108।।
तत्त्वज्ञ धर्मध्यानी की स्वरूपमग्नता की आंतरिक अभिलाषा―धर्मध्यान के फल में ग्रैवेयक और अनुत्तरादि विमानों में रहने वाले देवों में जन्म होता है । यहाँ उन देवों का सुख बताया जा रहा है । धर्मध्यान के फल में देवो के सुख आते ही हैं, उत्तम देवो में जन्म होता है, लेकिन धर्मध्यानी पुरुष को यह वांछा नहीं होती है कि मेरा इस प्रकार के सुखों वाली जगह में जन्म हो । वह धर्मध्यानी पुरुष तो प्रभु की भक्ति में भी अपने स्वरूप में समाना चाहता है । जिसने यथार्थ तत्व का निर्णय किया और जिसके संसार शरीर भोगों से वैराग्य हुआ है वह यह चाहता है कि में सर्व विकल्पों से दूर होऊँ, मैं अपने आप में ऐसा समा जाऊँ, मैं दुनिया के लिए कुछ न रहूं । जब प्रभु के उस विशुद्ध ज्ञानानंद के चमत्कार में अपनी दृष्टि लगाता है, प्रभु के निकट पहुंचता है तो वह और रोये तो कहां रोये ।अपना दुःख बताये तो किसे बताये? यहाँ जगत में तो कोई सुनने वाला नहीं है । रोये तो उनके गुणस्मरण की छाया में रहकर रोये । दिल लगाये तो कहाँ लगाये? अपनी एक धुन एक तान कहाँ लगाये? वह समझता है कि क्या है इस संसार में? केवल यही एक वीतराग प्रभु का गुणस्मरण ही शरण है । ये समस्त वैभव ये सब पौद्गलिक ठाठ धूल के समान हैं । जो यह बात लिखी गई है कि कंचन काँच बराबर हैं, यह बात केवल लिखी ही नहीं है । मोही पुरुष तो इसे यों ही लिखी गई है बात ऐसी समझते हैं, और इन्हीं धर्म वाक्यों को पढ़कर सुनकर जानकर विद्यावान बनकर भी यदि नहीं चेतता है तो न चेते, लेकिन जो लोग उसके जानकार हैं, जो लोग उसका महत्व समझते हैं वे तो ऐसे वाक्यों को सुनकर ही कंचन कांच में समानता निरखने लगते हैं, और एक शुद्ध स्वभाव के स्मरण से ही अपना हित समझते हैं । इसी प्रकार मोहीजनों ने तो नियम बना रखा है कि सब धर्म एक ही हैं, परंतु मोहियों के मानने का क्या उठता है? शांति तो अनाद्यनंत एक स्वरूप ज्ञायकस्वभाव अंतस्तत्व की उपासना से प्राप्त हो सकती है । यही मात्र एक वह आत्मधर्म है जिसके प्रसाद से मुक्ति प्राप्त होती है ।
निकटभव्यों द्वारा परमब्रह्मत्व के आलंबन के महत्त्व का अंकन―परमपावन चिदानंदस्वरूप का ब्रह्मत्व का अनादर तिरस्कार करने वाले प्राय: लोक के सभी प्राणी हैं, फिर भी निकटभव्य तत्त्ववेदी पुरुष कारणपरमात्मतत्त्व की उपासना करते हैं । राजा द्वारा आदर न पाने वाले एक कवि ने कहा―त्वं चेन्नीचजनानुरोधनवशादस्मासु मंदादर:, का नो मानध्यानहानिरिपुतास्यात्किं त्वमेक: प्रभु: । गुंजापुंजपरंपरापरिचयादद्भिल्लीजैनरुज्झितं, मुक्तादामनिधाम धारयति किं कंडे कुरंगीदृशाम् ।। हे राजन् यदि तुमने नीच जनों के अनुरोध से हममें मंद आदर कर दिया तो इतने से मेरी क्या हानि हुई? क्या तुम एक ही प्रभु हो?
परमार्थधर्म में ही धर्मरूपता―एक राजा राजसभा में बहुत दिनों से साधारण कल्पित कवियों का आदर कर रहा था, किंतु एक मुख्य विद्वान कवि की उपेक्षा कर रहा था । वहाँ पर बहुत से कवि लोग एकत्रित हुआ करते थे । तो इस, तरह से जब काफी दिन गुजर गए, तो एक दिन उनमें से वह कवि एक श्लोक में बोल उठा―रे रे रासभ भूरिवारवहनात् कुग्रासमश्नासि किं, राजाश्ववरससिं प्रयाहि चणगकाभ्यूषं सुखं भक्षय । ये ये पुच्छनभृतो हया इति वदनयत्राधिकारे स्थिता, राजा तैरुपदिष्टमेव मनुते सत्यं तटस्था: परे ।। हे गधे ! तू बहुत बोझा क्यों ढोता है, राजा की अश्वशाला में पहुंच जा और खूब दाना खा । लोगों ने यह नियम बना लिया कि जिन जिनके पूंछ लगी है वे सर्व घोड़े हैं । राजा उनकी ही मानता, बाकी लोग तटस्थ हैं । यदि राजा घोड़े में और गधे में अंतर नहीं जानता, गधे की पूंछ निरखकर घोड़े की पूंछ के समान समझकर उस गधे को भी घोड़ा बता दे, घोड़े का अनादर कर दे तो वह उसके मन की बात है, पर उसके अनादर कर देने से कहीं बह गधा घोड़ा जैसा तो न बन जायगा । जैसे वन में फिरने वाली भिल्लनी जिन्हें गुम्चियों का ही परिचय है वे यदि कहीं मुक्ता फल पा जायें और उसका प्रयोग पैरों में पहिनने में करें तो वह उनकी बात है, लेकिन वह मुक्ता फल क्या बड़े-बड़े चक्रवर्ती राजा की महारानी के गले में शोभा को न प्राप्त होगा? अरे वे भिल्लनियां यदि उस मुक्ताफल को गुमची समझकर अनादर करती हैं तो क्या उससे उसका अनादर हो जायगा? अर्थात् न होगा । वह मुक्ताफल तो बड़ी-बड़ी पट्टरानियों के गले में शोभा को प्राप्त होगा । इस ही प्रकार से समझ लो―यदि इस परमात्मतत्व का, आत्मा के सहजस्वरूप का, कारणसमयसार का कोई मोही पुरुष निरादर करते हैं, उसकी और दृष्टि नहीं करते, उस पर झुकते नहीं, उसको एकमात्र शरण नहीं मानते तो मत मानो, किंतु जिनका संसार निकट है, जो संसार के संकटों से निकटकाल में छूटने वाले हैं, क्या ऐसे पुरुषों के उपयोग में वह कारणपरमात्मतत्व शोभा को न प्राप्त होगा?
प्रभुस्वीकृत मार्ग में ज्ञानी की चर्चा―हे प्रभो ! आपने क्या किया? जो मार्ग अपनाया वही मेरा हित कर सकता है । यदि प्रभु की भक्ति कर के भी प्रभु की महिमा को न जाना तो कहाँ भक्ति हुई? यों तो किसी भी कुदेव के पास, किसी भी धनिक के पास, किसी भी नेता, राजा के पास जाकर भीख माँगने वाले लोग संसार में बहुत पाये जाते हैं । प्रभुभक्ति का उपयोग तो उनके है जिन्होंने जिस रास्ते से चलकर प्रभु बने उसी रास्ते में अपना कदम रखा । जीवन तो उन्हीं का धन्य है । ध्यानी पुरुष ग्रैवेयक, सर्वार्थसिद्धि आदिक की वांछा नहीं करता, बल्कि यह भी कह दीजिए कि उसके चित्त में यह भी धुनि नहीं रहती कि मैं सिद्ध बनूं । तब क्या धुन रहती है? मुझे बनना क्या है, यह भी धुन नहीं रहती । धुन भी क्या रहती है? जो बात यथार्थ दिख गई वह भूली नहीं जा सकती, सो सतत परमार्थ यथार्थ निज को निरखते हैं, बस यही धुन है । सर्व विकल्पों का निरोध होकर अपने आपके सहज ज्ञानज्योति में जो विश्राम बनाता है उस विश्राम के प्रसाद से जो अलौकिक आनंद आता है वैसा आनंद सारे देवेंद्र, सारे चक्रवर्तियों का भी सुख संचित कर लो तब भी उतना आनंद नहीं आता है । ऐसे अद्भुत आत्मीय स्वाधीन आनंद का जिसे अनुभव हुआ है उसे यहाँ के सारे सांसारिक सुख फीके लगते हैं । उसकी तो एक ऐसी धुन रहती है कि मेरे वर्तमान विशुद्ध परिणमन के प्रताप से जो होता हो, हो, उसके विपरीत किसी असत्य में जाय तो कहाँ जाय? यह है ज्ञानी की चर्या ।
प्रभुभक्ति के प्रसंग में ज्ञानी भक्त के हर्ष व विषाद का अलौकिक संगम―यह धर्मध्यानी पुरुष प्रभु की भक्ति के समय अपने आपको कैसा भीतर ले जाता है कि जिसके गुणों का स्मरण करके, आँखों में जो कुछ अश्रुवों की धारा बह निकलती है तो वह आनंद और विषाद की संयुक्त स्थिति बनती है । जैसे बिल्कुल विरुद्ध अलग-असंग दिशावों से आई हुई नदियाँ किसी एक स्थल पर मिल जाये ऐसे विषाद और आनंद का मिलन होता है । विषाद तो वहाँ अपनी वर्तमान स्थिति का है और आनंद प्रभु की तरह अपने आप में जो चमत्कार और वैभव सिद्ध हुआ है उसका है । तो आनंद और विषाद ये दोनों स्थितियाँ एक साथ हो जाती है और वह भी अलौकिक आनंद और अलौकिक विषाद जब इन दोनों का मिश्रण होता है तो कोई स्पष्ट बोल नहीं बोल सकता, बोलेगा तो अस्पष्ट । तोतलों से भी गजब का तोतला । और विषाद में जब अधिक होगा तो भौ स्पष्ट वाणी नहीं निकलती । यहीं देख लो―कोई किसी बात पर बहुत अधिक हँस रहा हो अर्थात् खुश हो रहा हो और उस हँसती हुई हालत में कोई बात बतावे तो कुछ समझ में आता है क्यों? और अत्यंत विषाद के समय भी जो बोल निकलता है वह भी अस्पष्ट रहता है । तो जहाँ प्रभु के गुणों का स्मरण करके अलौकिक आनंद होता है और साथ ही अपनी वर्तमान इस परिस्थिति को निरखकर अलौकिक विषाद होता है जहाँ दोनों एक साथ रहते हैं ऐसा भक्त भगवान के प्रति उमंग कर के कुछ बोल भी रहा है तो वह किसकी समझ में आये? साथ ही उस बोल पर वह हैरान भी है क्योंकि जिसको कह रहे वह सुनता नहीं, अन्य को सुनाना नहीं । फिर भी उससे-उससे उस खुशी में शब्द बोले ही नहीं जा रहे, ऐसी गद्गद् वाणी के साथ वह भक्त प्रभु की स्तुति करता है । हे प्रभो ! मुझे आप से कुछ चाहिए नहीं ।
अहमिंद्र के सुखों की विचारातीतता―भैया ! जो निमित्तनैमित्तिक भाव की बात है वह होती ही है । धर्मध्यान के फल में परमवीतरागता के अभाव में ग्रैवेयक और अनुत्तरादि विमान के देवों में उत्पत्ति होती है । उनका सुख विचारातीत है । क्या करें विचार? एक बार जंगल के भील लोग लकड़ियों का बोझ लादे चले जा रहे थे गांवों में बेचने के लिए । वे आपस में गप्पें मार रहे थे और राजा की चर्चा कर रहे थे । एक भील बोला कि राजा को तो बड़ा ही सुख है । एक ने पूछा कैसे? तो वह बोला-अरे कैसे क्या बताये, उसको तो बहुत आराम है, वह तो रोज-रोज गुड़ ही गुड़ खाता होगा । तो भीलों का विचार कहां तक बढ़े? विचारहीन सुख है भीलों के । तो उन अहमिंद्र देवों की कषाय अत्यंत मंद हैं कि जिनकी उपमा यहाँ किसी से नहीं दी जा सकती । उन देवों के यहाँ तत्वचर्चा का समागम निरंतर रहता है । वे अपना स्थान छोड़कर कहीं भ्रमण नहीं करते । उन देवों के शरीर बहुत छोटे हैं―किसी का 1 हाथ का शरीर तो किसी का 1 ।। हाथ का शरीर, ऐसे अल्पकाय वाले, दिव्य काय वाले देव जिनको 23 से 31, 32 अथवा 33 हजार वर्ष में थोड़ी भूख लगती है और समय आने पर कंठ से अमृत झरता है उससे तृप्ति हो जाती है । उन दिव्य देहाधिष्ठित देवों का सुख हम आप क्या विचार में लायें? इतने अनुत्तर सुख वाले जन्म को पाते हैं ये धर्मध्यानी जीव ।
अहमिंद्र देवों के विचारातीत सुख का अनुभवन व पुण्यरस का वर्द्धन―ये अहमिंद्र देव विचारातीत सुख भी भोग रहे हैं और साथ ही पुण्यरस भी बढ़ा रहे हैं । कुछ तो देव ऐसे होते हैं जो पाये हुए सुखों को भोगते रहते हैं और पापबंध करते रहते हैं जिससे वे दुर्गति के पात्र होते हैं, लेकिन अहमिंद्र देव जिनकी एक दूसरे से रंचमात्र भी अधीनता नहीं, जिनका वैभव एक समान है इस कारण दूसरे के वैभव को देख करके उनमें ईर्ष्या द्वेष की बातें भी नहीं होती हैं, जिनका धर्मचर्चा में समय गुजरता है वे निरंतर पुण्यरस को बढ़ाते रहते हैं । जो नवीन-नवीन तत्त्व चर्चायें करके अथवा जो चर्चायें आत्मीय अलौकिक आनंद को प्रदान करने वाली हैं, उनको कर के 33 सागर का इतना लंबा समय व्यतीत कर देते हैं । उनके पुण्यरस बढ़ता है, वे एक दो मनुष्यभव पाकर ही मुक्त हो जाते हैं । धर्मध्यान का इतना बड़ा प्रसाद है । अब क्या करना चाहिए इस पर विचार कीजिये । जो बात यहाँ मनुष्य के वश की नहीं है उसकी कल्पना में अपना समय गुजारना है अथवा जो अपनी बात है, जिसमें अपना उत्थान है, जिसमें अपना उद्धार है उसका स्मरण करना चाहिए । खूब विचार कर लो । यह केवल सुनने मात्र की बात नहीं है या केवल कहने मात्र की यह बात नहीं है, जो इस बात को अपने में उतारेगा वही उसका आनंद पायगा ।