वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2144
From जैनकोष
पृथक्त्वे तु यदा ध्यानी भवत्यमलमानस: ।
तदैकत्वस्य योग्य: स्यादाविर्भूंतात्मविक्रम: ।।2144।।
द्वितीय शुक्लध्यानी का आत्मविक्रम―जिस समय ध्यानी का चित्त इस पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान के द्वारा कषायों से रहित होता है तब उस योगी में अद्धृत पराक्रम प्रकट होता है और वह द्वितीय शुक्लध्यान के योग्य होता है । अभी तो ज्ञान में बहुत अदल-बदल चल रहे हैं किंतु एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान में ये सब अदल-बदल समाप्त होते हैं । जिस पदार्थ से जाना हे, जो ज्ञेय है उस ज्ञेय से बदलेगा नहीं और वह ज्ञान उत्पन्न हो जायगा ऐसा यह शुक्लध्यान का दूसरा चरण है ।