वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2145
From जैनकोष
ज्ञेयं प्रक्षीणमोहस्य पूर्वज्ञस्यामितद्युते: ।
सवितर्कमिदं ध्यानमेकत्वमतिनिश्चलम् ।।2145।।
एकत्ववितर्क अविचार शुक्लध्यान का प्रताप―जिसका मोहकर्म सब दूर हो गया है नष्ट हो गया है, क्षय को प्राप्त हो गया है उसी पुरुष के दूसरा शुक्लध्यान होता है । यह शुक्लध्यान क्षपक श्रेणी से चढ़ने वाले जीव ही पा सकते हैं । 12वे गुणस्थान में जिसके प्रथम समय में समस्त कषायें नहीं रहीं वहाँ यह ध्यान उत्पन्न होता है । यह भी पूर्व द्वादशांग जानने वाले के होता है और इसकी ज्ञप्ति अपरिवर्तित है । इस ध्यान के प्रताप से अब केवलज्ञान का असीम प्रकाश उत्पन्न होगा, जिसमें पदार्थ के जानने का परिवर्तन नहीं है । यह ध्यान छद्मस्थ जीवों में सर्वोत्कृष्ट योगीश्वरों के ही होता है । इसके बाद कोई उत्कृष्ट पद नहीं है । फिर तो इसके बाद भगवान का पद है । जो योगी द्वितीय शुक्लध्यान को ध्या रहे हैं उस पद के बाद यदि अन्य कोई पद है तो अरहंत का पद है । इस एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान के प्रताप से केवलज्ञान प्रकट होता है ।