वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 2146
From जैनकोष
अपृथक्त्वमवीचारं सवितर्कं च योगिनः ।
एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यंतनिर्मलम् ।।2146।।
द्वितीय शुक्लध्यान में सर्वत: एकत्व―एक योग वाले मुनि के यह दूसरा शुक्लध्यान होता है, अर्थात् द्वितीय शुक्लध्यान के अधिकारी के योग परिवर्तन भी नहीं होता, जिस योग से ध्यान कर रहे थे―मनोयोग लगाकर वचनयोग में अथवा काययोग में, उसी योग में 12वां गुणस्थान पूर्ण व्यतीत होता है और जिस शब्द से ध्यान कर रहे उसी शब्द से ही ध्यान चलता है । जिस ज्ञेय को जाना है उस ही ज्ञेय को जानते रहते है इस प्रकार से यह सब ओर से एकत्वभाव को लिए हुए हैं । सो यह द्वितीय शुक्लध्यान अत्यंत निर्मल होता है।